सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह को युद्ध से थोड़ा अवकाश मिला तो उन्होंने महल बनवाने का निश्चय किया. नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए इंर्धन की आवश्यकता बतायी गयी. राजा ने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को लकड़ियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया, मंत्री गिरधारी दास भण्डारी की नजर महल से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली पर पड़ी.
मंत्री गिरधारी दास भण्डारी व दरबारियों ने मिलकर राजा को सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृति दे दी. खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे. बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है. खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की 42 वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी, भागु बाई और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे.
खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि “यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी.” इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि “इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है.” इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया “सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण” अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है. उस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी.
कुछ दिन बाद मंगलवार 21 सितम्बर 1730 ई. (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी लावलश्कर के साथ पूरी तैयारी से सूर्योदय होने से पहले आये, जब पूरा गाँव सो रहा था. गिरधारी दास भण्डारी की पार्टी ने सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के हरे पेड़ो की कटाई करना शुरु किया तो, आवाजें सुनकर अमृता देवी अपनी तीनों पुत्रियों के साथ घर से बाहर निकली.
उसने ये कृत्य विश्नोई धर्म में वर्जित (प्रतिबंधित) होने के कारण उनका विरोध किया. तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी की पार्टी ने द्वेषपूर्ण भाव से अमृता देवी को उसके पेड़ छोड़ने के बदले रिश्वत में धन मांगा. उसने उनकी मांग मानने से इन्कार कर दिया और कहा कि ये हमारी धार्मिक मान्यता का तिरस्कार व घोर अपमान है. उसने कहा कि इससे अच्छा तो वह हरे पेड़ो को बचाने के लिये अपनी जान दे देगी. और इसके साथ ही उद्घोष किया “सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण” और अमृता देवी गुरू जांभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गयी, क्षण भर में उनकी गर्दन काटकर सिर धड़ से अलग कर दिया. फिर तीनों पुत्रियों पेड़ से लिपटी तो उनकी भी गर्दनें काटकर सिर धड़ से अलग कर दिये.
यह खबर जगल में आग की तरह फ़ैल गयी. आस-पास के 84 गांवों के लोग आ गये. उन्होनें एक मत से तय कर लिया कि एक पेड़ के एक विश्नोई लिपटकर अपने प्राणों की आहुति देगा. सबसे पहले बुजुर्गों ने प्राणों की आहुति दी. तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने बिश्नोईयों को ताना मारा कि ये अवांच्छित बूढ़े लोगों की बलि दे रहे हो. उसके बाद तो ऐसा जलजला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे स्त्री-पुरुष सबमें प्राणों की बलि देने की होड़ मच गयी.
बिश्नोई जन पेड़ो से लिपटते गये और प्राणों की आहुति देते गये. आखिर मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को पेड़ो की कटाई रोकनी पड़ी. ये तूफ़ान थमा तब तक कुल 363 बिश्नोईयों (71 महिलायें और 292 पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी. खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी. यह मंगलवार 21 सितम्बर 1730 (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा.
समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है. इस घटना से राजा के मन को गहरा आघात लगा, उन्होंने बिश्नोईयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया. बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा. बिश्नोई समाज आज भी अपने गुरू जांभोजी महाराज की 29 नियमों की सीख पर चलकर राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी के पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है.
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