शब्दवाणी भावार्थ 51-68

शब्दवाणी भावार्थ 51-68


शब्द -51
ओ 3 म्-सप्त पताले भुय अंतर अंतर राखो, महे अटला अटलु। अलाह अलेख अडाल राशिी शिंभू, पवन अधारी पिंडजलुरु। भावार्थः- इस शरीर के अन्दर ही सप्त पाताल है यौगिक भाषा में मूलाधार चक्र, जो गुदा के पास इनसे प्रारम्भ होकर उदास उठने पर नाभि के पास स्वाधिष्ठण चक्र है आगे आगे हृदय के पास मणिपुर चक्र, कन्थ के पास अनाहत चक्र, भंडारण में विशुद्ध चक्र और भंडार से ऊपर आज्ञाचक्र है। इन छः पाताल यानी नीचे के चक्रों को भेड़ने का कारण सातवें सहस्त्रार ब्रह्मेरंध्र में प्राण स्थितियां हो जाते हैं तब योगी की समाधि लगते हैं। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणें इन सात चक्रों के अन्दर ही रखे गए हैं। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना है। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र में प्राण स्थितियां हो जाते हैं तब योगी की समाधि लगते हैं। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणों को इन सात चक्रों के अंदरूनी रखी जाती है। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र से झरते हुए अमृत का पान कर रहे हैं फिर मुझे आवश्यकता है कि नहीं है। इसीलिए में स्थिर होकर यहां पर बैठा हुआ हूँ। घोषण और जल का बना हुआ शरीर अवश्यमेव जल और अन्न की मांग मांग किन्तु प्राणों को जीतने समाधि में स्थित हो जाने पर फिर से शरीर से ऊपर उड़कर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप जो अलाह, अलेख, अडाल, अयोनी, स्वयंभू के रूप में ही स्थित हो जाता है, वह आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। काया भीतर माया आछै, माया भीतर दया आछै। दया भीतर छाया जिहिकै, छाया भीतर बिंब फलू। क्योंकि इस पंचभौतिक शरीर के भीतर ही माया है अर्थात् माया प्रकृति शरीर के कण-कण में समायी हुई है क्योंकि माया से ही यह शरीर निर्मित है। उसी शरीर रूपी माया के अन्दर दिल है। वही शरीर के अन्दर ही है। उसी हृदय में भी माया की छाया है क्योंकि स्वयं माया तो स्थूल शरीरस्थ है किन्तु उसकी छाया मनदरेपपी अंतःकरण पर अवश्य ही पड़ी है। उसी माया की छाया में ढ़का हुआ वह परमपिता परमात्मा का प्रतिबिंब रूप आत्मा स्थित है। वही फल रूप है, उसी फल की प्राप्ति के लिए आगे तो ज्ञान द्वारा माया का छेदन होगा तो उसकी छाया भी परेशान हो जायेगी, फिर आत्म साक्षात्कार होगा। पूरक पूर पूर ले पोण, भूख नहीं अन जीमत कोण। यही आत्म साक्षात्कार और माया का भेदन मैनें प्राणायाम द्वारा किया गया है। पूरक, रेचक, कुम्भक इन विधि विधि से प्राणों को अपने अधीन कर दिया गया है। अब मुझे भूख ही नहीं लगती तो फिर बताओ, बिना भूख के भी क्या अन्न खाया जाता है | अब अगर रावण को मार दूं तो भी लाभ और लंका को ले लूर तो भी लाभ क्या है। लक्ष्मण भ्राता बिना तो मेरा लड़ना ही व्यर्थ है। कहा हुआ जे सीता अयोयो, कहा करुं त्याता भोस। खल के साटैरारा गियोयो। सीता को ले अब में करुंगा क्या? और सीता हस्तगत करने पर भी मेरा भाई तो मुझे नहीं मिलनेगा तो उस सीता से भी क्या। हे मेरे गुणवान भाई! अब में अकेला क्या करुं, मुझे कुछ भी नहीं दे रहा है। मैनें तो यहां लंका में आकर खली प्राप्त करने के लिए अमूल्य हीरा खो दिया। मेरे लिए लक्ष्मण बिना तो रावण को मारकर लंका और सीता पर अधिकार तो खली के समान है। कहां तो अमूल्य रत्न हीरारूपी लक्ष्मण और कहां यह विजयीप तेलविहीन खली। यह तो सौदा घाटे का हो गया है।

 शब्द -52 
ओ 3 महे-मोह मन्दप थाप थापले, राख राख अधरा धरुं। आदेश वेसुं ते नरेसुं, ते नरा अपरं पाररु। भावार्थः- यह विशाल संसार में मनुष्य अपना मोहजाल फैलाता है। यही कहता है कि यह मेरा है और यह पराया है जो मेरा है किमें मोह हो जाता है यह मुझे हो या मेरे पास ही रहे। एक वस्तु प्राप्त हो जाता है तो फिर दूसरा पर दृष्टि दौड़ाता है। सभी वस्तुएं तो प्राप्त होना असम्भव है तो फिर दुखी हो जाता है। जम्भदेवजी कहते हैं कि इस मोम के फैलाव को समेट कर मंदप बना ले। एक जगह परमात्मा में ही एकत्रित कर ले वही आप के लिए भवन बन जायेगा जो आप सहारा भी। उसी दिव्य मोह निर्मित भवन के नीचे इन पांच ज्ञापनों सहित मन को स्थिर करने के लिए। जब तुम्हारा मोर परमात्मा विषयक हो जायेगा तो वह प्यार में परिवर्तित हो जायेगा प्यार में यह मन भी लीन होकर स्थिर हो जायेगा। जब मोम का विस्तार समाप्त हो जायेगा तो फिर मन बेचारा कहां जायेगा भी परमात्मा की छत्रछया में आराम दिखने लग जायेगा। वह चंचल मन अधर ते भीड़ धैर्यवान शांत हो जायेगा। फिर वह इन्द्रियों सहित मन आपके आदेश में चलेगा, बैठेगा, शांत रहेगा। वही नरेश है वही स्वैच्छिक इन्द्रियों का, मन का राजा है और वही नर गुणवत्ता है। जोकी महिमा का कोई पार नहीं है, वही व्यक्ति पूजनीय हुआ हुआ जीवन को सफल बना लेता है। रण में से नर रहियो, ते नरा अडरा डरुं। ज्ञान खड़गू जथा हाथे, कोण हमारेसी रिपब्लिक। मोहक को जीतकर उसको जो सदुपयोग में लगा दे अर्थात् परमात्मा के प्रेम रूप में मण्डप में परिवर्तित कर दे, ऐसा नर ही इस संसार रूप में युद्ध मैदान में संघर्ष किया हुआ भी बाहर बाहर हो जाता है। यह संसार दुःख तो मोह में लिप्त प्राणी के लिए है। निर्मोही जन तो संसार में जीवयापन किया हुआ भी दुःखों से दूर है। ऐसे जन न तो कभी किसी से डरते हैं और न किसी को डराते हैं। इसीलिये हे लक्ष्मण! मैनें तो इस प्रकार की दिव्य अलौकिक ज्ञान रूपी खड़ग हाथ में ले ली है। यह खड़ग हाथ में रहते हुए हमारे शत्रु हो हो सकता है। आप भी इन लो के अस्त्र -शस्त्र को छोड़कर यह ज्ञानरूपी तलवार ही धारण, सभी शत्रुतापूर्ण ही नष्ट हो जायें | 

शब्द -53
 ओ 3 म- गुरुवाररा विणजे लेहम लेहूं, गुरु ने दोष न देना। भावार्थः- जो सद्गुरु वह तो हीरों का व्यापार व्यापार इसीलिए मैनें भी वही किया जाता है अर्थात् ् उतम ज्ञान ही लोगों को दिया जाता है जीवन में युक्ति सिखलाई। जीवन की कला में प्रवीण कर अंत में मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया है। अगर कोई लेना चाहता है तो ले सकता है। यहां पर किसी से कोई भेदभाव नहीं है और अन्य प्रकार के घर में आई बहरी गंगा में स्नान नहीं किया फिर गुरु गुरु को दोष नहीं देना। पवन पानी जमी मेहरु, भार अठारे परबत रेहूं। सूरज जोति परे परे रे, एटी गुरु के शरन। यह दृष्ट्यूम अदृष्ट पवन, पानी, धरती, वर्षा, अठारह भार वनस्पति, पर्वत, श्रेणियां सूर्य और सूर्य की ज्योति जहां तक ​​पंहुचती है तक तक और भी आगे तक जहां तक ​​शून्य है तक सभी कुछ गुरु ईश्वर परमात्मा के ही शरण में है । इनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय गुरु के ही आधी है। केती पवली अरु जल बिम्बा, नवसे नदी निवासी नाला। सायर एती जरणान। और जो प्रकार से कई छोटे और बड़े तालाबों का जल, झरना का जल और अने प्रकार की नदी और पुरानी नदियों का जलने नालों का जल समाहित हो जाता है। यह सभी प्रकार का जल अंत में नदी द्वार से जाकर समुद्र में ही मिल जाता है और समुद्र उसे अपने अन्दर स्थान दे दिया जाता है। उसी प्रकार से ही पर्वत, पवन, पानी आदि सभी पर परमत्व रूप गुरु में ही समाहित हो जाते हैं। वह से ही उत्पत्ति और स्थिति भी होता है। क्रोड़ निनाणवे राजा भोगी, गुरु के आंख कारण जोगी। माया राणी राज तजीलो, गुरु गुजिलो जोग सझेीलो। पिंडा देख न झुराना। सृष्टि प्रारम्भ से ले अब तक 99 करोड़ राजा जो भोग विलास में लिप्त थे, वे सभी सचेत होकर गुरु की शरण में आये। सद्गुरु ने उनको सदनदेशित किया त्यागें मोहमाया, रानी, राज सभी कुछ छोड़कर योग की साधना की। तपस्या काल में अनेको कष्ट उठाए। शरीर को सुखा दिया किन्तु उस थके से शरीर को और कष्ट को देखकर परवाह नहीं। वे लोग भोग की पराकाष्ठा से योग की पराकाष्ठा तक पंहुच सित। कर कृष्णनी बेफायत संठो, जो जो जीव पिडै नीसराना। आदै पहलू घड़ी अढ़ाई, स्वर्गीय पहुंचता हिरनी हिरण। सुरंत पुना तेतिसां मेलो, जे जीवन्ता मृत्युएं। हे मानव! अगर साधनारूपी खेती करनी है तो हिम्मत धैर्य रखो बहुत समय तक लगातार कर तभी वह फलदायक हो। खेती और योग, ध्यान, जप साधना में ही समय धैर्य और परिश्रम की मांग कर रहे हैं और यह साधना तब तक निरंतर करना रहो जब तक शरीर से प्राण न निकल जाये अर्थात् अंत समय तक। एक शिकारी ने वन में हिरानी को पकड़ लिया था। उस हिरण ने शिकारी को वचन देकर अपने बच्चों को बहन को सौंपने के लिए पहुंचे और खुद को अपने बच्चों और बहरी और आति शिकारी के सामने उपस्थित हो गया था। उसने वचन देकर निभाया था। सत्य का पालन करने से अढ़ाई घड़ी में ही वो पूर्ण परिवार स्वर्ग का अधिकारी बन गया था और शरीर त्याग कर तेतिस करोड़ देवी देवताओं भेंट किया गया था, सिद्धांतों ने अपने वचनों का पालन किया प्राण देकर भी किया था। इसके फलस्वरूप कहा गया है कि अब भी आकाश में नक्षत्रों के रूप में विचरण कर रहे हैं। के के जीव कुजीव, कुधात कलोतर बांणी। बाद में हंकारिलो, वैभार घाना ले डेटो। इस लोक में सभी तरह के जीव हैं। कुछ सज्जन तो कुछ कुजीव। दुर्जन भी यकृत रहते हैं वे लोग शरीर के अंग-प्रांग से कुरता है, उनके बनावट ही ऐसा है कि वे लोग शुद्ध वाणी भी बोलना नहीं पता। जब कभी भी बोलते हैं तो कलहकारी वाणी ही बोलते हैं। बात-बात पर व्यर्थ का विवाद उठाएं और अहंकार का ही पोषण करने वाले काम को बढ़ावा देना। ऐसे लोग अत्यधिक भार लेते हैं, लेकिन इस धरती से जायें, पापों के बोझ तले दबे से रहेंगे और दबे भिआ चले जायें। मिनखां रे तैंतु सूतैं सोयो, खूलै खोयो, जड़ पाहन संसार बिगोयो। निरफल खोड़ भिरांति भूला, किसी भी जा चुकाओ। रे मानव! तूं गहरी निद्रा में सोता रहा, युवावस्था में तैने खुल शक्ति का नाश किया। उस शक्ति को तू परमात्मा में लगाता तो अच्छा था किन्तु आपने अधिकतर ऊर्जा का तो विषयभोगों में नष्ट किया गया और कुछ अवशिष्ट शक्ति को परमात्मा के नाम पर या तो पत्थर की मूर्तियों पर मत्था पटका या फिर पेड़ पौधों पर विश्वास कर अपने जीवन को व्यर्थ कर दिया । जैसे खेती रहित उजाड़ वन में कोई धान, फल, फूल खोजता फिरे किन्तु फल फल कहां से मिलगा। उसी प्रकार इस संसार के विषयों में तु सुख रूपी फल खोजता रहा है सुख कह रहा था। तब यह बतलाओ फिर आशा आशा से मृत्यु प्राप्त कर हो। आगे कौनसा सुख मिल रहा है जब यम पर हम कुछ नहीं किया तो आगे के लिए आशा करना व्यर्थ है। बेसाही अंध पड़ो गल बंध, लियो गल बंध गुरु बरजंतै। हेलै श्याम सुन्दर के टोटै, पारस दुस्तर तरणो। हे अंधे! तेरी गर्दन में वैसे ही बिना प्रयोजन यह मोहमाया रूपी फांसी पड़ गया है। तूने देखा नहीं था अगर देखता हो क्यों पड़ती और सद्गुरु ने जब गल में फांसी पड़ रही थी तो भी था, सचेत भी किया था किन्तु तुमने परवाह नहीं अब क्या होगा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने गीता में उद्घोषण की थी कितु तुमने नहीं नहीं सुनी तो अब घाटा तुम्हारा ही पड़ेगा। इस महान घाटी को ले तो पार उतरना अति कठिन है। निश्चे छेह पड़ो पालो, गोवलवास जु करणों। गोवलवास कमाई ले जिवड़ा, सो सुरगापुर लहन्ना .. इस मानव देह के रहते हुए अगर नहीं चेतेगा तो निश्चित ही परमात्मा से दूर हो जायेगा फिर कभी मिलन भी करभ हो जायेगा। गोवलवास अर्थाट घर से दूर अन्यत्र कुछ दिन के लिए निवास जैसी स्थिति आ जायेगी। परिस्थितिशशिस घरिस आना मुश्किल हो जायेगा। इसीलिए यह अच्छा रहेगा कि मानव जीवन में ंरहते हुए इस संसार को ही गोवलवास समझना। इसको ही अपना सच्चा घर समझकर मोह मत बढ़ाना। यहां पर कुछ दिन का मेहमान ही मानना ​​तो निश्चित रूप से अपने घर स्वर्ग से ऊपर परमात्मा के परम धाम में पंहुच संभवगा।

 शब्द -54
 ओ 3 म- अरण बिंबाय रे रिव भानणै, देव दिंवाणे, विष्णु पुराण। बिन्वा बाने सूर उगाणो, विष्णु बिवाणे, कृष्ण पुराण। भावार्थः- यहां पर फिर सूर्योदय का सुन्दर वर्णन किया गया है। जैसे आप देखते हैं कि होगा कि सूर्योदय से पूर्व ही आकाश में पूर्व की और लालिमा छाती है और ज्योहि सूर्य प्रगति होती है तो सूर्य की किरणें पहले जमीन ऊपर नहीं पड़ती किन्तु वनस्पति पेड़ पौधों पर ही मेलती है। वही अरणी कही सूर्यदेव का विमान है जिनके ऊपर चढ़कर सर्वप्रथम प्रकाशित होता है। सूर्य स्वयं देवता है क्योंकि वह देता है हमारे लेता कुछ भी नहीं। सभी देवता परमात्मा विष्णु के कार्यकर्ता वे हैं और सभी को अलग-अलग पद और कार्य सौंपा हुआ है। यह सूर्यदेव परमात्मा विष्णु का दीवान है। दीवान यानी संदेशवाहक का यही कार्य होता है कि वह देश देशान्तर में जाकर खबर पंहुचा दे। इसीलिए सूर्यदेव रोज हमें खबर देने के लिए प्रकाशमय होकर आता है और जगा देता है। स्वयं सूर्य अपने ज्योति से प्रकाशित नहीं है। उसमें ज्योति तो अनावृत पुराण सर्वेश्वर विष्णु की ही है वही विष्णु का यह प्रतिबिंब रूप सूर्य नित्यप्रति उदित होता है। अपने कार्य के लिए परमात्मा विष्णु ने सूर्य को ज्योति प्रदान की है। वह जब देखभाल तब भी लेव हैं और स्वयं विष्णु ही बिवाण रूप में सूर्य का परम आधार है। प्राचीनकाल में जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी तब सूर्य भी प्रकाशमय नहीं था तब इस संसार में अंधकार ही छाया हुआ था। पहले सूर्य सूर्य प्रकाशित किया गया था जगत की रचना की थी। कांय झंख्यो तैं आल पिराणी, सुर नर तनी सबरूरुं। इंडो फूटो बेला बरती, ताछै हुई बेर अबेरुं। हे प्राणी! इस प्रकार से परमात्मा द्वारा भेजा गया यह दीवान रूपी सूर्य जब उदित होता है तो उस समय ब्रह्ममुहूर्त में उठकर तेरे को उस दयालु परमात्मा को धन्यवाद, कृतज्ञता प्रकट करते हैं और उनके प्रतिनिधि रूप सूर्य को नदियों सलाम करना चाहते थे किन्तु तूं सोता ही रहे और अगर जग भी गया आल बाल झूठ निंदा भरे वचन बोलने लगा। दिन से रात और रात से दिन रूप में समय व्यतीत हो गया। इस ब्रह्माण्ड में कभी दिन का आवरण छाया रहता है और कभी रात का। यह अण्डे की तरह ऊपर आवरण सदा ही बना रहता है किन्तु बीच-बीच में सूर्यदेव रात का आवरण भंग कर दिन का चढ़ाया है और दिन का अंत होता है तब रात का आवरण छाती हैं इसी प्रकार बेला व्यतीत होता है। मेरे परै सो जोयण बिंब लोयण, पुरुष भलो निज बांणी। बांकी समझारी एक जोती, मनसा सास बिन्वाणी। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि हम जैसे अवतारारी पुरुषों से परे भी निराकार पुरुष परमात्मा जो ज्योतिति से सदा सर्वदा रहता है जिसका सूर्य चन्द्र आदि ही नेत्र है। इनसे वो सदा सर्वदा ब्रह्माण्ड को देखता है और उसका वाणी भी दिव्य अनहद नाद ओंकार ही है। उन ज्योतिशील ब्रह्म और हमारे एक ज्योति है और सम्बन्ध भी सदा ही जुड़ा रहता है कि सम्बन्ध हम हम मन और श्वाससरू बिवाण के साधन से जोड़ते हैं। प्राणवायु और मन की गति अति शीघ्र होता है किसे हम सदा सर्वदा निरंतर सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। को अचर अचारे लेना, संजमे शीले सहज पतिना। तिहिं अचर नै चीनहत कोण, जाकी सहजै चूके आवागमन। कुछ लोग तो उपरोक्त निराकार पारब्रह्म से ज्ञान योग द्वारा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं और कुछ लोग सिकुण साकार शरीरधारी आचार विचारवान को ही जानते हैं और सम्बन्ध स्थापित करते हैं। उनके लिए गुरु जम्भेश्वरी कहते हैं कि यहां पर शुद्ध आचार विचारवान, संयमी, शील व्रतधारी सहज विश्वासी यहां पर स्थित हैं। अगर कोई मेरे से सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं तो इन नियमों को जीवन में अपनाकर मेरे पास आओ, तुम आचारवान को पहचानो तो तुम्हारा आवागमन सहज ही में मिट जायेगा। इस प्रकार से साकार निराकार ये माह ही रूपों के द्वारा मानव गन्तव्य स्थान प्राप्त किया जा सकता है किन्तु सोलुण साकार रूप सरल सहज पड़ता है।

 शब्द -56
 ओ 3 म्- कुपात्र कू दान दान दीयो, जानै रैंण अंधेरी चोर जु ल्योओ। चोर जुने भाख चढ़ाई, कह जिवाड़ा तैं कैनें दीयो। भावार्थः- कुपात्र को दिया गया दान निष्फल ही होता है। जैसे अंधेरी रात में चोर ने ही मानों चुरा लिया है और धन लेना पर्वत ऊपर चढ़ाया हो। वह धन न तो आप डाउनलोडिस प्राप्त कर सकते हैं और न ही खुद की खुशी से सुपात्र को दिया गया है। इस संसार को छोड़कर जीव जब आगे पंहुचेगा तो उससे पूछने के जरूर जायेगा। तब यह कहेगा कि मनुष्य अपने जीवन में बहुत दान दिया किन्तु फिर फिर भी यह जाजगा कि तुमने दिया अवश्यमेव था किन्तु किसको दिया। अगर सुपात्र को दिया गया है तो देना है किन्तु कुपात्र तो जबरदस्ती छीनकर ले जाता है और आपका अन्न धन खाकर के अभाव कर्म कर्म तो उसमें भी भाग भागूर मिलगा। दान सुपाते बीज सुखेते, अमृत फूल फलीजैं। काया कसौटी मन जो गूंटो, जराना ढाकण दीजै। इसीलिए दान तो सुपात्र को ही देना चाहते हैं, वही दान फूलता-फलता है और अमृतमय बन जाता है। जिन प्रकार से अच्छी साफ-सुथरी जोताई-गुट की हुई उपजाऊ भूमि में समय पर बोया हुआ बीज अनन्त गुण फल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से सुपात्र को दिया गया दान भी। जो सज्जन पुरुष ने अपने काया को तपस्या रूप में कसौटी पर लगा दी हो, उस कसौटी पारख में काया खरी उरी हो और मन को एकज्रेंड जो ईश्वर ध्यान में मगने होता है अर्थात् चंचल मन को स्थिर कर दिया जाता है, अजर जो सदा ही जलाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, ईष्र्या आदि को जला दिया हो और उनके साथ भी संतोष, शांति, दया, कारुन्य रूपी ढ़कन लगाया हो सकता है कभी प्रगति नहीं हो सकता है लेकिन सुपात्र हो सकता है है। यही सुपात्र की परीक्षा है। ऐसे लोगों को दिया गया दान अमृतम फल वाला होता है। थोड़े मांहि थोड़ैरो दीजै, ना ना न नजै। जोय जोय नाम विष्णु के बीजै, अनंत गुणा लिख ​​लीजै। सुपात्र अधिकारी को तो आपके पास अगर कम है ज्यादा नहीं है तो भी वह में ही थोड़ा ही दे दीजिए, पर्याप्त है किन्तु पास में अन्न, धन, वस्त्र आदि बहने वाला नहीं नहीं। अगर सुपात्र कभी अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आपका पास आता है तो आप अपना सौभाग्य समझते हैं। सेब से सुपात्र कुपात्र का निर्णय कर आपका द्वारा सुपात्र अधिकारी को दिया गया दान विष्णु परमात्मा के ज्ञान हो जाता है। वही विष्णु समर्पण दान ही अनन्त गुण विस्तारक हो जाता है तो उसे सुननाक्षरों में लिखा जाता है, वह सुगम अमिट हो जाता है वस्त्र आदि बहाना नहीं नहीं श्रेय। अगर सुपात्र कभी अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आपका पास आता है तो आप अपना सौभाग्य समझते हैं। सेब से सुपात्र कुपात्र का निर्णय कर आपका द्वारा सुपात्र अधिकारी को दिया गया दान विष्णु परमात्मा के ज्ञान हो जाता है। वही विष्णु समर्पण दान ही अनन्त गुण विस्तारक हो जाता है तो उसे सुननाक्षरों में लिखा जाता है, वह सुगम अमिट हो जाता है वस्त्र आदि बहाना नहीं नहीं श्रेय। अगर सुपात्र कभी अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आपका पास आता है तो आप अपना सौभाग्य समझते हैं। सेब से सुपात्र कुपात्र का निर्णय कर आपका द्वारा सुपात्र अधिकारी को दिया गया दान विष्णु परमात्मा के ज्ञान हो जाता है। वही विष्णु समर्पण दान ही अनन्त गुण विस्तारक हो जाता है तो उसे सुननाक्षरों में लिखा जाता है, वह सुगम अमिट हो जाता है

 शब्द -57
3 महे- अति बल दानों, सब स्नानो, गऊ कोट जे तीरथ दानो बहुत करे आचारु। भावार्थः -अति सर्वत्र वर्जयेत 'अत्यधिक दिया गया दान भी सफलीगत नहीं होता क्योंकि उसमें सुपात्र कुपात्र का विचार किया गया बिना दिया जाता है और वह दान केवल इहलोक में यश वृद्धि के लिए होता है और सभी तीर्थों में स्नान कर ले जाये जाते हैं करोड़ों गौवें भी दान में दे दी जाय अन्य भी सभी तीर्थों के आचार-विचार विधि-विधान पूर्ण कर जया तो भी दान का अंतः पार तो पाया नहीं जा सकता। तेरा जोय जोय पार न पायो, भाग परपति सारु। घटता उंधै बैरीस बहु मेहा, नींर थियो से ठलेंर। केवल अतिदान के बल पर तो पार नहीं पा सकते अर्थात् सर्वोच्च पद प्राप्त नहीं कर सकता है। मिलेगा तो उना हीतना तुमने दिया है। पूर्वजम कर्म में अन्य जन्म में भाग्य बनकर आता है। उस सर्वोच्च पद के लिए दान के साथ-साथ अन्य ध्यान आदि क्रियाओं की भी आवश्यकता है। किन्तु तुमने दान रूपी घड़ा तो धारण कर दिया गया है शरीर रूपी घटता तो दान दान के प्रभाव से प्राप्त हो चुका है किन्तु उसको तुमने उल्टा कर रख रहा है। अब इस पर हमनी ही ज्ञानरूपी हो हो। इसमें एक बूंद भी नहीं गिरेगी और जब तक इसमें अमृतम जल नहीं भरेगा तब तक सुख की आशा तो कद नहीं नहीं करनी चाहती है। को इंगसी राजा दुर्योधन सो, विष्णु सभा महलणो। तिआनही तो जोय जोय पार न पायो, अध विच रहीयो ठलीर। राजा दुर्योधन अति अभिमानी था क्योंकि मद के साधन सभी उसको सुलभ थे। उस दुर्योधन ने भगवान विष्णुरुपी कृष्ण को अपनी सभा में बुलाया था। श्रीकृष्ण को अति निकट से दुर्योधन ने देखा और सुना था किन्तु वह पार नहीं पा सका। कृष्ण को अच्छी तरह से जान नहीं सका क्योंकि राज्य मद में मस्त जो था, कैसे जान पाता। इसीलिए दुर्योधन अधिवचन में ही खाली रह गया अर्थात् न तो कृष्ण परमात्मा को जानना पाया, न राज्य ही भोग पाया, बीच में मृत्यु का ग्रास बन गया। जपिया तपस्या पोह बिन खपिया, खप खप गया इंवाणी। तेउं पार पंहुता नंका, ताकी धोती रही अस्माानी .. और अन्य भी जप करने वाले, तपस्या करने वाले प्राइवेट इन्होनें भी बिना मार्ग जाने और बस ही जीवन बर्बाद कर दिया। उन्हें जप का अभिमान, तप का अभिमान था, तो कैसे सद्मार्ग को ग्रहण करते हैं, बिना सद्मार्ग पार भी कैसे पंहुचते। पार तो वे भी नहीं पंहुचे जिनकी धोती आकाश में सूखा हो अर्थात् वे लोग स्वयं को सिद्ध मानते थे किन्तु सिद्धि भी मुक्ति के लिए बाधा ही है। इसीलिए अभिमान वृद्धिकारक सभी कार्य सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं।

 शब्द -58
 ओ 3 म्-तौवा मान दुर्योधन मावण, अवर भी मनत मांणो। तौवा दान जू कृष्ण माया, अवरुद्ध फूलत दानो। भावार्थः- अहंकारी व्यक्ति कभी भी इहलोक और परलोक में उन्नति नहीं कर सकता है। किन्तु जीवों का यह दुर्भाग्य ही है जो सृष्टि के आदि से अब तक छोटे से बड़ा मानव अपने योग्यता में अहंकार करता है और अधिक है। जितना अभिमान दुर्योधन ने किया उत्पाना तो और किसी ने नहीं किया। दुर्योधन के अहंकार ने महाभारत करवा दिया था किन्तु अन्य दूसरे छोटे-छोटे लोग भी नित्यप्रति महाभारत करवाते ही रहते हैं। भगवान विष्णुरुपी कृष्ण की त्रिगुणात्मिका माया ने भी इस संसार रूप में फैलाव किया है। उसके बराबर तो अन्य कोई और फैलाव नहीं कर सका। अगर और भी छोटे-मोटे फैलाव उत्पत्ति होता है तो भी कृष्ण की माया के बराबर कहां है? तौवा जान जू सहस्त्र झूज़्या, अवर भी झूज़त जानों। तौवा बाण जू सीता कारण लक्ष्मण खैर, अवर भी खंचत बाणों। परशुरामजी के साथ युद्ध करते हुए जना संघर्ष सहस्त्रार्जुन ने किया था किना दूसरा नहीं कर सकता है। वैसे तो संसार के लोग विपक्ष से जूझी रहे हैं। रावण को मारकर सीता की वापसी के लिए लक्ष्मण ने जितने खींच-खींच कर बाण चलाये थे और कोई नहीं चला। कभी -कभी संसार के कमजोर लोक सचमुच कर लेते हैं किन्तु यह तो सामान्य रूप से होता है। चोरी अहंकार की झलक दे दे रही है तो ये लोग स्थिर कहां रहमान और शांति भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जती तपी तकपीर ऋषेश्वर, तोल रह्या शैतान। तिआन किण खेंच नवर, शिंभु तानी कमानू। जनकपुर में राजा जनक के यहां सीता स्वयंवर में बड़े-बड़े राजा, जती, तपी, ऋषि और इन भी महान महर्षि आये थे। वे सभी अपना-अपना बल तोल कर चले गए थे किन्तु से किसी भी धनुष उठा नहीं सका था। वे अपना अभिमान, शैतानी ले आये थे तो शिव धनुष उनसे कैसे उठता है। तेऊ पार पहुता नंही, ते कीयो आप भानणों। तेऊ पार पहुता नांही, ताकी धोती रही अस्मानों। वे लोग इस संसार सागर से पार नहीं पंहुच संभव त्याग स्वयं ही मनमानी की। न तो वे लोग सद्गुरु की शरण में आये और न ही कभी शुभकामम हमने किया और वे सिद्ध लोग जिनकी धोती सिद्धि बल से आकाश में ही सूखा हो गया, वे भी पार नहीं पंखुच संभव क्योंकि उनको सिद्धि का अभिमान ले डूबा। बरान काजै हरकत आइर, अध बिच मांड्यो थांणो। नारसिंह नर नराज नरवो, सुराज सुरवो नरां नरपति सुरं सुरपति। जब नृसिंह अवतार हुआ था, वह तो नर्स में श्रेष्ठतम, देवताओं में शूरवीर, देवता का राजा, देवताओं के देवता थे। त्यागें हिरण्यकश्यपू को मार डाला था, उसी समय प्रहलाद ते तेतीस करोड़ देव मानवों के उद्धरण का वचन दिया गया था। उनके वचन का अर्थ इक्कीस करोड़ तो तीन युगों में प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर के साथ पार पंहुच संबंध किन्तु 12 करोड़ नहीं पंहुच संभव। इस कमी की पूर्ति के लिए गुरु जम्भदेव जी कह रहे हैं कि मैनें इस पाताल और स्वर्ग के बीचों में मिले हैंुलुलोक में आसन जमाया है। ज्ञान न रिंदो बहुगुण चिन्दो, पहलू प्रहलादा आप पतलीयो। दूजा काजै काम बिटलीयो, खेत मुक्त ले पंच करोड़ी। परमात्मा विष्णु ने कहा तो प्रहलाद को अतिकष्ट सहन करवाया और हिरण्यकश्यपू से अत्याचार द्वारा प्रहलाद की परीक्षा करवाई। जब परीक्षा में प्रहलाद सर्वगुण सम्पन्न, ज्ञानवान, परोपकारी सिद्ध हो गया तबी विष्णु परमात्मा ने नृसिंह रूप में दर्शन दिया और तेतिस करोड़ उद्धार का वचन दिया गया पांच करोड़ समय प्रहलाद के साथ ही पार हो गया। प्रहलाद भक्त ने स्वयं का और साथ में अन्यों का भी उद्धरण किया। सो प्रहलादा गुरु की वाचा बहियो, ताका शिखर अपारुरु। ताको तो बैकुंठे बासो, रतन काया दे सोपियन छल भंडारू। जो वे लोग प्रहलाद के वचनों के अनुसार चले। प्रहलाद को सद्गुरु स्वीकार किया। उन पांच प्रयासों को तो समय समय अपार सर्वोच्च शिखर मुक्तिधाम की प्रस्तुति हो।, उनको तो अपार आनन्द प्राप्त हुआ। पर पर पंहुचने पर उन्हें दिव्य रत्न सदृश अलौकिक दूसरा काया प्राप्त हुआ और उन्हें अमृत से भरे भण्डार सौंप दिये। यहां संसार के लोक एक बूंद अमृतपान के लिए तरसते हैं वह नहीं मिल पाता किन्तु अस्त तो भण्डार भरे हुए सौंप दीये, जिससे सदैव तृप्ति बनी रहती है। तेउ तो उरवारे थानो, अई अमाणो, तत समाणो। बहु परमाणु पार पंहुचन हारा। जो प्रहलाद के साथ पार पंहुच उनके निवास स्थान यकृत पर मिले्युलोक में ही था वे अपने बीच के ही लोग थे। यद्य रहकर वे लोग तत्व में समाक्ष, ज्योति से ज्योति मिला ली। इसमें कईनेक शास्त्र सुविज्ञजन, पुराण आदि प्रमाण हैं। वे पार तो इसीलिए पंहुचे क्योंकि पार पंहुचने के योग्य थे। लंका के नर शूर संग्रहमे घाना बिरामे, काले काने भला तिकंट। पहले जूझ्या बाबर झटका, पड़े ताल समी पारी, तेउ रहीया लंक दवारी। त्रेतायुग में राम रावण युद्ध के समय लंका के राक्षस युद्ध करने में अति शूरवीर राम से विरूद्ध द्वेष भाव युक्त, काले रंग के बेहुदे, एक आंखों वाले काने, बड़े ही चतुर चालाक योद्धा थेंक पूर्व तोतोंोन राम, लक्ष्मण, बानरी सेना के साथ युद्ध किया युद्ध समय में जब ताल ठोक कर मैदान में उतरते थे तो समुद्र पार तक भयंकर ताल की ध्वनि सुनाई थी। वे लोग भी लंका के दरवाजे तक ही समिति रह गए, लंका से बाहर नहीं जा रहा। वैसे पर युद्ध के मैदान में ढ़ेर हो लिंग। खेत मुक्तले सात करोड़ी, पर्रराम के हुकम जे मूवा। सेतो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुंडठे बासो। त्रेतायुग में परशुरामजी ने कहा कि दुष्ट जादूकृतियों का विनाश किया गया था और राम-लक्ष्मण ने भी राक्षसों का विनाश किया था किन्तुल से जो पर्रम और राम की आज्ञा का पालन करने वाले थे। वे सात करोड़ ही बैकन्थ को प्राप्त हो सकता है। क्योंकि वे परमात्मा के प्यारे थे। हरिश्चन्द्र से लेकर राम रावण वारतत भी बीच में जो प्रहलाद पंथी बिछुड़े हुए जीव थे, वे ही सात करोड़ पार हो रहे थे। अन्य तो सबिस जन्मदिन के चक्कर में आ। रतन काया दे सौंप्या छल भंडारूं, तेउ तो उरवारे थाणो। अई अमाणो पार पंहुचन हारा। इस लोक से जीवात्मा की विदाई के बाद जब वे पार पंहुच मान तो वहां पर रत्न सदृश काया की प्रस्तुति हुई और आगे कईनेक अमृत से भरे हुए भंडार उनको सौंप दीये, क्योंकि वे लोग इस संसार से पार पंहुचने के योग्य थे, इसीलिए पंहुच गन्स उनके भी निवास स्थान यम पर हम था। काफ़र खानो बुद्धि भड़ो, खेत मुक्त लेव करोड़ी। राव युधिष्ठिर से तो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुंडठे बासो। द्वापर युग में युधिष्ठिर और कृष्ण के समय में कौरव पांडवों के बीच में महाभोत महाभारत हुआ था, उसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेना समाप्त हो गया था। उस समय दुर्योधन की अध्यक्षता में कई लोगों को नास्तिक, बुद्धिहीन कपटी हो गए थे। युद्ध में तो सज्जन दुर्जन सभी मारे जाये थे किन्तु युधिष्ठिर और कृष्ण के प्यारे उनके आदेश से चलने वाले नवमान ही पार पंहुचकर मुक्ति प्राप्त कर रहे थे। रतन काया दे सौंप्या छल भंडारूं, तेउ तो उरवारे थाणे। अई अमाणो बहु परमाणु, पार पंहुचन हारा। जो इस संसार के जन्म-मृत्यु चक्र से छूट उन्हें आगे रतन सदृश दिव्य शरीर की प्रस्तुति होती है अमृत से भरे भण्डार सौंप दिये गए। उनके भी यद्य पर पूरा्युलोक में ही निवास था, वे हमारे बीच से ही हैं। इसमें शास्त्र महाभारत आदि बहुत ही प्रमाण हैं। जो पारित योग्य थे वे मुक्तिधाम प्राप्त कर रहे थे। बार काजै हरकत आई, तातै बहुत भई कसवार। पांच, सात, नव मिलाकर इक्कीस करोड़ तो अब तक पार पंहुच धार हैं किन्तु बारह करोड़ अभी शेष है, जब तक वे नहीं पंहुचते हैं तब तक कम रहेंगे। यहाँ कम की पूर्ति के लिए मुझे भी आना पड़ा है क्योंकि पहले वचन दे चुका है। अब वह वचन पूरा करने के लिए मेरा कर्तव्य है।

 शब्द -60
 ओ 3 म्- एक दुख लक्ष्मी बंधु हंस, एक दुख बुढ़े घर तरणी अयोयो। एक दुख बालक की मां मुइयो, एक दुख औछें को जमावार। भावर्थः- भगवान राम उस समय सीमादा पुरूषोत्तम थे। संसार की सभी मर्यादायें निभाना अपना कर्तव्य समझते थे। इसीलिए एक छोटा भाई अपने बड़े भाई के लिए प्राण न्यौछ्वर कर दे, वह भी लंका युद्ध जैसा परिस्थिति में राम का विलाप करना अति उत्तम था। राम पुरुषोत्तम होने से विलाप करना भी अच्छी तरह से पता था इसीलिए बड़ा खूबी से विलाप किया था। वही यहां पर बतला रहे हैं। राम विलाप करते हुए लक्ष्मण से कह रहे हैं- हे लक्ष्मण! विश्व में दुःख कई तरह के होते हैं, से एक से फिर दुःख तब होता है जब भाई की मृत्यु हो जाता है। दूसरा दुःख बूढ़े पुरूष के घर युवती पत्नी आ जाये, ऐसी स्थिति में दो ही दुखी रहते हैं और एक तीसरा दुःख छोटा दूध पीते बच्चे की माता का मृत्यु हो जाये तो वह दुःखी होता है, पूर्ण परिवार दुखी हो जाता है और एक चैथा दुःख धनवान , बड़े लोगों के बीच में गरीब आदमी का जीवन। ये सभ्य दुःख असहनीय है। एक दुख तूटे से व्यवहार, तेरे लक्ष्मण अनंत नहीं, सहै न शक्ति भार। एक पांचवा दुःख यह भी है कि केई आदमी टूट गया है, जिसका धार्मिक, नैतिक पतन हो चुका है, उससे व्यवहार मेल-मिलाप रखेगा तो वह सदा ही दुःखदायी है। हे लक्ष्मण! इन महाभुज दुःखों से भी यह तुम्हारा दुःख अत्यधिक है। मेरे लिए असहनीय है। तूं यह मेघनाद की भारी शक्ति सहन नहीं कर सका, मूच्रछछ क्यों हो गया, तुमने कौनसा दोष किया था। कैं ते पर्रराम का धनुष जे पियोयो, कै तैं दाव कुदाव न जान्यो भईयूं। हे लक्ष्मण! तुमने युद्ध मैदान में कौनसी भूल कर दी। क्या तुमने परशुरामजी दिया गया धनुष नहीं उठाया। क्या वह महान धनुष इस भयंकर युद्धकाल में पड़ा था तुमने उस मेघनाद के दावों, कुदावों को नहीं समझ सका। क्योंकि राक्षस मायावी ते हैं, अने प्रकार के पैंतरे खेल हैं। लक्ष्मण बाण जे दशशिर हियो, एतो झूज़ हमें नहीं जानो। मैनें तो यही सोचा था कि लक्ष्मण के बाणों से रावण बड़ी आसानी से मारा जायेगा। बहुत भयंकर युद्ध होगा, राक्षस का कोई नहीं आयेंगे और लक्ष्मण को शक्तिबाण लग जायेगा, यह मैनें नहीं जाना था। जे कोई जान हमारे नाउं, तो लक्ष्मण ले बैकन्तेठें। अगर कोई इस संसार में रहते हैं हमारे जैसे ही जानेगा अर्थात् जैसा मेरा और लक्ष्मण का परस्पर व्यवहार है। हम अपने पिता, माता, भाई, पत्नी के साथ व्यवहार व्यवहारदादा किया गया है ऐसा कोई भी स्थिति तो हे लक्ष्मण! में उसको खुद ही समान मानकर साथ में सीधा बैकंडठ परमधाम लेंगा। इस मर्यादा की स्थापना कर जीवों पर परमधाम पंहुचाना ही मेरा कर्तव्य है इसीलिए मेरा यहां आना हुआ है। तो बिन ऊभा पहिया पीढ़ी, तो बिन सूना त्रिभुवन थानो। हे लक्ष्मण! तूज़ मुच्रछछावस्था आ जाने के बाद ये येनानायक किकर्तव्यविमूढ़ हो गया, कुछ भी करने में असमर्थ हो रहे हैं, और तुम्हारे बिना मेरे लिए तो तीनों इमारतों ही शून्य हो। मेरी समझ में नहीं तो कोई और यह आज्ञापालक अनुज ही इस संसार में है और न ही यह शूरवीर है। कहा हुआ जे लंका ल्योयो, कहा हुओ जे रावण हियो।

 शब्द -61
 ओ 3 म-कै तैना कारण किरिया चूक्य, कै तैं सूरज सामो थूक्यो। कै तैं उभै कांसा मांज्या, कै तैं छान तिनुका खैर। भावार्थः- हे लक्ष्मण! तुमने कौनसी क्रिया शुद्ध आचार विचार में चूक कर दी या तुमने सूर्यदेता को प्रामाणिक सूर्य नमस्कार न कर सामने थूक दिया अर्थात् अपमानित किया है। क्या तुमने खड़े-खड़े ही भोजन किया और खड़े ही कांसा के बर्तन साफ ​​और क्या तुमने किसी गरीब की झोंपड़ी बिखेर डाली। से से होसा दोष किया जाता है कारण कारण तेरे यह यह है कि है। कै तैं ब्राह्मण निवत बहोड्या, कै तैं आवाज कोरम चोर्या। कै तैं बाड़ी का बन फल तोड़्या, कै तैं जोगी का खप्पर फोड़या। क्या तुमने ब्राह्मण को निमंत्रण देकर फिर भोजन नहीं करवाया। क्या तुमने कच्चे घड़े कुम्हार के चुरा के लिए। क्या तुमने बाग-ट्रेचे से फल बिना पूछे हम तोड़ने के लिए। क्या तुमने योगी का खप्पर फोड़ दिया। पह से सेसा दोष किया जाता है। कै तैं ब्राह्मण का तागा तोड़्या, कै तैं बेर बिरोध धन लोड़्या। कै तैं सूवा गाय का बच्छ बिछोड़्या, कै तैं चरती पिबती गऊ बिड़ारी। ब्रह्म के ज्ञता ब्राह्मण को वस्त्र दान न देकर क्या तुमने उसके वस्त्र ही फाड़ डाले। क्या तुमने कोई किसी से बैर बिरोध कर धन इकट्ठा किया। क्या तुमने नई ब्याही हुई गाय का बछड़ा अलग कर दिया। अपनी मां के दूध से वंचित कर गौ और बछड़े के प्रति किया जाता है। क्या तुमने कभी वन में चरती हुई घास खाती या जल पीती हुई गऊ को किसी भयानक आवाज से डराकर भगा दिया। आप से कौन दोष आपने हैं। कै तैं हरी परई नारी, कै तैं सगा सहोदर मार्या। कै तैंका तिरिया सिर खड़ग द्विया, कै तैं फिरतैं दातण कीयो। क्या तुमने कभी किसी परावी स्त्री का हरण किया है। क्या तुमने कभी अपने सगे-सम्बन्धी और सहोदर भाई को मारा है। क्या तुमने अबला स्त्री के सिर ऊपर उसे मारने के लिए तलवार उठायी है। उसे मारने-पीटना-धमकाने की कोशिश की है। क्या तुमने चलते-फिरते हुए दातुन किया है, क्योंकि इस प्रकार दातुन करने से जुठे छिंटे शरीर पर पड़ोस हैं और अन्य भी कई नुकसान होने की संभावना है रहती है। कै तैं रण में जाय दों दीयों, कै तैं बाट कूट धन लींयो। किसे सरापे लक्ष्मण हैयूर। क्या तुमने युद्धभूमि में जाकर युद्ध नहीं किया, पीछे भाग 1 और अपने स्वयं को धोखा दिया है। क्या तुमने कभी जबरदस्ती अपने बाहुबल से किसी को लूटकर धन प्राप्त किया है। हे लक्ष्मण! तो बताओ जाने से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या किसी भी शाप लगा है जो कारण से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गया। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्धमूच्रछछ अवस्था मे सुना था। संजीवनी बुर्टी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपना भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रह रहे हैं। कै तैं बाट कूट धन लींयो। किसे सरापे लक्ष्मण हैयूर। क्या तुमने युद्धभूमि में जाकर युद्ध नहीं किया, पीछे भाग 1 और अपने स्वयं को धोखा दिया है। क्या तुमने कभी जबरदस्ती अपने बाहुबल से किसी को लूटकर धन प्राप्त किया है। हे लक्ष्मण! तो बताओ जाने से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या किसी भी शाप लगा है जो कारण से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गया। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्धमूच्रछछ अवस्था मे सुना था। संजीवनी बुर्टी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपना भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रह रहे हैं। कै तैं बाट कूट धन लींयो। किसे सरापे लक्ष्मण हैयूर। क्या तुमने युद्धभूमि में जाकर युद्ध नहीं किया, पीछे भाग 1 और अपने स्वयं को धोखा दिया है। क्या तुमने कभी जबरदस्ती अपने बाहुबल से किसी को लूटकर धन प्राप्त किया है। हे लक्ष्मण! तो बताओ जाने से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या किसी भी शाप लगा है जो कारण से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गया। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्धमूच्रछछ अवस्था मे सुना था। संजीवनी बुर्टी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपना भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रह रहे हैं। तो बताओ जाने से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या किसी भी शाप लगा है जो कारण से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गया। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्धमूच्रछछ अवस्था मे सुना था। संजीवनी बुर्टी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपना भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रह रहे हैं। तो बताओ जाने से ही कोई दोषपूर्ण कार्य करने से यह शक्तिबाण रूप शाप लगा है या किसी भी शाप लगा है जो कारण से आज तुम्हारी इस नाजुक घड़ी में यह दशा हो गया। इस प्रकार से राम के दुःखभरे वचनों को लक्ष्मण ने अर्धमूच्रछछ अवस्था मे सुना था। संजीवनी बुर्टी से स्वास्थ्य ठीक हो गया था। तब लक्ष्मण ने अपना भ्राता राम से कहा। वही बातें जम्भेश्वरजी शब्द द्वारा बतला रह रहे हैं।

शब्द -62
 ओ 3 म- ना मैं कारण किरिया चूक्य, ना मैं सूरज सामो थूक्यो। ना मैं उभै कांसा मांज्या, ना मैं छान तिनुका खैर। भावार्थः- लक्ष्मण ने उपर्युक्त अट्ठारह दोषों के प्रश्न का उतरने से कहा- हे राम! न तो कभी भी भूल जाते हैं किसी कारण क्रिया में ही चूक की है, ना ही कभी सूर्यदेव के सामने थूककर अपमान ही किया जाता है, न ही खड़े होकर भोजन कर बर्तन ही साफ किया जाता है और न किसी गरीब की झोंपड़ी ही तोड़ है। ना मैं ब्राह्मण निवत बहोड्या, ना मैं आवाज कोरम चोर्या। ना मैं बाड़ी का बन फल तोड़्या, ना मैं जोगी का खप्पर फोड़या। न तो मैनें ब्राह्मण को निमंत्रण देकर भूखा रखता है, न ही मैनें कभी कभी कुम्हार का कच्चा घड़ा ही चुराया है, न ही मैनें कभी कभी बाड़ी का फल बिना पूछे तोड़ा है और न ही योगी का खप्पर ही फोड़ा है। ना मैं ब्राह्मण का तागा तोड़्या, ना मैं बेर बिरोध धन लोड़्या। ना मैं सूवा गाय का बच्छ बिछोड़्या, ना मैं चरती पिबती गऊ बिड़ारी। न ही मैनें ब्राह्मण को वस्त्र दान देने से मुख मोड़ा है, सदा देना ही मेरा धर्म रहा है, न ही बैर विरोध द्वारा धन प्राप्त किया अर्थात् अनीति द्वारा धन प्राप्त कभी नहीं किया। न ही मैनें ब्याही हुई गौ से उसके बछड़े का बिछोह ही किया। ना ही मैनें वन में निद्र्वन्द घास चरती पानी पीती गऊ को ही डराकर भगाई हैं ना मैं हरी परई नारी, ना मैं सगा सहोदर मार्या। ना मैं तिरिया शिर खड़ग द्विया, ना मैं फिरतं दातण कीयो। ना मैं रण में जाय दों दीयों, ना मैं बाट कूट धन लींयो। ना तो मैनें परावी स्त्री का हरण किया। ना ही मैनें कभी किसी सगे सम्बन्धी को ही मारा। न ही मैनें किसी स्त्री को मारने के लिए उसके सिर पर घातक तलवार उठाई। न ही मैनें चलते-घूमते बातें करते हैं दातुन ही किया। न ही मैनें युद्ध भूमि में जाकर स्वयं को धोखा देकर देिसिस ही भागा और न ही मैनें कभी कभी से अपने बाहुबल से धन ही लूटा। हे राम! इन अट्ठारह दोषों में से तो एक भी दोष कभी भूल भी नहीं किया। एक जू ओंगुण रामा की, अणहुंतो मिरघो मारण ग्रेस। दूजो औगुण रामा की, एक दोष दोष अदोषा दी। लक्ष्मण को अगर शक्ति बाण लगने से मूर्छा आती है तो उस स्थिति में भी लक्ष्मण से अधिक दुःख राम को होता है। इसीलिए लक्ष्मण तो किंचित भी विलाप नहीं कर किन्तु राम बहुत ही विलाप कर देता है। पाप या दोष का फल दुःख होता है। यहां पर लक्ष्मण से भी ज्यादा दुःख राम को हुआ है। इसीलिए ऐसा मालूम पड़ता है कि दोष लक्ष्मण ने नहीं किया। अगर कोई दोष गलती हुई है तो राम से ही। लक्ष्मण को शक्ति लगना तो राम को उनके कर्मों को फल भोगाने के लिए ही था। असम्भवं हेम मृगस्य जन्म हालांकि रामो लुलुष मृगय। प्रायः समापन्न विपत्ति काला धियाओपी पुंसंत मलिना भवन्ति .. स्वर्ण मृग नहीं हो सकता फिर भी राम के लोभ ने उसकी प्रस्तुति के लिए प्रेरित किया। प्रायः यह देखा गया है कि विपक्षिका में बुद्धिमान व्यवस्था की बुद्धि भी मलीन हो जाता है। ऑनलाइन बात को गुरु जम्भेश्वरी कहते हैं कि उस समय लक्ष्मण ने कहा कि हे राम! मैनें कोई अवगुण नहीं किया जाता है। हां आप तो पहला दोष नासमझी तो यह की, कि सोने का मृग नहीं हो सकता है आप की सी बात नहीं समझने और उसे मारने के लिए दौड़ पड़े और दूसरी भूल यह हो कि कि राक्षस की करुणामय पुकार को न करें आप समझ सकते हैं और न सीता ही। मुझे सीता माता ने कटु वचन कहे, मैं निर्दोष था। मुझ दोष रहित जन को और सीता ने ही दोष दिया। मैं क्या करता हूं तुम्हारा आज्ञा स्वीकार करता है या सीता माता की। सीता ने मुझे विशेष रूप से वचनबाणों द्वारा घायल किया, जिससे मैं आपके पास गया, सीता अकेली रह गया। यहाँ के कारण सीता हरण हुआ और हमें यहां इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। वन खंड में जद साथर सोस, जद को दोष तदों को होईस। और सबसे बड़ा बड़ा दोष तो हम लोग का यह था कि उस वन में हम निवास करते हैं, साथ में रहते हुए भी सचेत नहीं रह सकता है। हमें मालूम भी था कि यहां पर राक्षसों का भी साथ में ही निवास है और उनसे बैरभाव भी मोल ले हैं। हमें निर्भय होकर नहीं सोना था। सदा सचेत रहकर अपनी रक्षा करनी थी, हम नहीं कर सकते हैं, इसीलिए हमें आज दिन देखना मिल गया। हम दोनों भाई, जानकी और यह वानर सेना सभी विपक्ष में पड़ोस हैं। थोड़ी सी असावृत्ति बहुत बड़ी विपत्ति का कारण बनी है। हे राम! उस वनवास समय की भूल हम ही दुःख का कारण है। आप मुझे दोष दें या निर्दोष सिद्ध करें, मुझे स्वीकार है। इन माध्यम द्वारा जम्भेश्वरजी ने रामायण के इस महत्वपूर्ण पहलू का समाधान दिया। जो एक नयी उद्भव है और अनुकूलितयुक्त मालूम पड़ती है। उस वनवास समय की भूल हम ही दुःख का कारण है। आप मुझे दोष दें या निर्दोष सिद्ध करें, मुझे स्वीकार है। इन माध्यम द्वारा जम्भेश्वरजी ने रामायण के इस महत्वपूर्ण पहलू का समाधान दिया। जो एक नयी उद्भव है और अनुकूलितयुक्त मालूम पड़ती है। उस वनवास समय की भूल हम ही दुःख का कारण है। आप मुझे दोष दें या निर्दोष सिद्ध करें, मुझे स्वीकार है। इन माध्यम द्वारा जम्भेश्वरजी ने रामायण के इस महत्वपूर्ण पहलू का समाधान दिया। जो एक नयी उद्भव है और अनुकूलितयुक्त मालूम पड़ती है।

 शब्द -63
 ओ 3 म-आतर पातर राही रुक्मण, मेल्हा मंदिर भोयो। गढ़ सोवनां तेपन मेल्हा, रहा छड़ा सी जोयो। भावार्थः- हे संतगणों! तुम्हारा यह कहना सच है कि द्वापर में कृष्णावत का समय तो ऐसा था। उस समय तो कईनेक दास-दासियों से घिरी हुई पवित्रा सौम्या रानी रुक्मनी थी, जो सदा सेवा में संलग्न रहा था और द्वारिका में बड़े-बड़े महल मंदिर मनभावन थे। वह स्वर्णमय दिव्य द्वारिका, रानी रुक्मणी सभी कुछ और छूट छूट यानी छोड़ दी जाती है। अब में अकेले जैसा ही मैं हूं। यद्यपि यदा कदा कुछ लोग समीपस्थ रहते हैं भी किन्तु फिर भी अकेला ही मैं। और च-रात पड़ता पाला भी जागया, राज तपस्या सूररु। उन्हा ठाढा पवना भी जाग्या, घन बरसंता नीरुं। यह भी कटु सत्य है कि यहां इस देश में राति पड़ते सर्दी प्रारम्भ हो जाता है और सूर्योदय के साथ ही गर्मी प्रारम्भ हो जाता है। यह मरुभूमि की विशेषता है और कभी गर्मियों में तो भंयकर लू चलती है और सर्दियों में ठंडी बर्फीली हवाएं चलती है और वर्षा ऋतु में कभी भयंकर वर्षा तो कभी सूखा पड़ोस जाता है। जो भी ऋतु बदलती है वही पूर्णरूपण अपना प्रभाव जमाती है। इस बदले वातावरण में इस 'हरि कंकेहड़ी' के नीचे व्यतीत करना पड़ता है। दुनीताना औचाट भी जाग्या, के के लिएग्रा दाल गलुहं। और इतने कष्टमय वातावरण में में निवास करता है फिर भी यहां के लोग मेरे पास में अपना दुःख दर्द लेते हैं। अने नाम प्रकार की कष्टमय व्यथा कथा मुझे सुनाते रह रहे हैं। उनके कष्टों का निवारण भी मुझे करना पड़ता है और कुछ नुगरे लोग मुझे बहुत ही भद्दी गहरी गाली भी देते हैं। इसके बारे में गाली भी मुझे सुननी पड़ती है। जिहि तन ऊन ओढ़ण ओढ़ां, तिहिं ओढ़ंता चीरुं। जां हाथे जप माली जपां, तहां जपंता हीरुं। मैनें इस शरीर पर जो यह ऊन का भगवा वस्त्र ओढ़ रखा है। कभी इस शरीर पर मलमल के दिव्य वस्त्र ओढ़ा कर रहे थे और इस बार मैनें जो यह हाथ में जप करने के लिए काठ की माला ले रखी है कभी राम, कृष्ण समय में हीरों की माला हाथ में रहा था। बारां काजै पड़यो बिछोंहो, संभल संभल झुरू। राद्यो सीता हनुशान पाखो, कौन बंधावत ते धीरूं। मुझे यहां मरुप्रदेश में इस सम्बराथल भूमि पर अने का कष्टों का सामना इसीलिए करना पड़ा क्योंकि प्रहलाद के वचनों का पालन कर रहे हैं इक्कीस करोड़ तो पार पंहुच और बारह कर रहे हैं उद्धरण करना अब शेष था, वे लोग भाग्यवेश्वर क्षेत्र में यत्र तत्र बिखरे हुए हैं इनको खोज करविसिस परमात्मा के लोक में पंहुचाना है। जब भी मुझे यह प्रहलाद वचन याद आता है तो मुझे भी दुःख होता है कि अब तक मैं वचन देता हूं निभा नहीं सका है। इसीलिये यहाँ पर डटा हुआ हूँ। राम को वनवास काल में भी अतिकारों का सामना करना पड़ा था। उस समय भी रावणना राक्षसें को मारना प्रयोजन था। उस समय राम के साथ मंहे लक्ष्मण, सीता के अध्यक्ष हनुमान जैसा कि महासेवक महावीर था। जब कभी अयोध्या की याद आती, कष्टों का अनुभव होता है तो ये लोग धैर्य बंधाया करते थे किन्तु यहां पर तो मुझे धैर्य बंधन वाला कोई नहीं है क्योंकि धैर्य ही दुःख को रोकता है। मागर मणियां काच कथीरुं, हीरस हीरा हीरूं। विखा पटंतर पड़ता 1, पूरस पूर्ण पूरब। ऊपर से देखने पर मगरे की कंकरीली भूमि में मिलने वाले पत्थर के मनके, कांच के मनके (मणिया) कथीर आदि के गहननेरे के साथ ही लगते हैं किन्तु जब विवेकी पुरुष द्वारा परीक्षा की जाती है तो भेद खुल जाता है। हीरा तो हीरा ही रहता है और कांच पत्थर के नकली हीरे अलग हो जाते हैं। उस प्रकार से जब तक आदमी को कष्ट की परीक्षा नहीं आती तब तक पूर्ण पुरुष या अधूरे पुरुष का पता नहीं चंचता। इसीलिए वियोग तो सृष्टि के आदिकाल से ही नहीं मिला है लेकिन बिछोह दुःख से जो दुःख नहीं हो, वही पूरा पुरुष है। जे रिण राहे सूर गहिजै, तो सूरस सूरा सूरर। दुखिया है जे सुखिया प्रकाशसैं, करसैं राज ग्यारुं। अगर अपने शूरवीर दिखानी है तो घर में बैठकर नहीं जा सकता है। उसे शूरता शो के लिए रणभूमि में ही जाना पड़ेगा और वैसे जाकर अगर अन्य शूरवीर द्वारा सराहनीय होगा तभी वह सच्चा शूरवीर है। उसी प्रकार से धर्मवीर, कर्मवीर, धैर्यवान व्यक्ति की परीक्षा भी तो संकट की घड़ी में ही हो सकता है। जो वर्तमान काल में धर्म सत्य का पालन करते हुए दुःखी बादल दे रहे हैं, वे कभी सुखी जीव, उन्हें धर्म का फल मिलागा। आज जो कंगाल है, वे कभी सम्राट बनेंगे, बहुत काल तक अकंटक राज्य होगा। प्रकृति का ऐसा ही नियम है। महा अंगीठी बिरखा ओल्हो, जेठ न ठंडा नीरुं। पलंग न पोढण सेज न सोवण, कंठ रूलता हीरुं। कभी कभी गर्मी ऋतु आती है तो महान अंगीठी की तरह यह जगत संतप्त हो जाता है। वर्षा ऋतु में वर्षा और ओले पड़ते हैं और जेठ के महीने ठंडा पानी नहीं मिला जब वर्षा सर्दी में ओले गिर गया .. यही यहाँ मरुभूमि में होता है हम सब हम सहन करते हैं। न तो यहं पर बैठने के लिए पलंग है और न ही सोने के लिए कोमल श्याया ही है और न ही गले में सुन्दर मोतियों की माला ही है। पहले ये सब कुछ सुलभ थे। इतना मोह न मानै शिंभु, तहे तदे सूसीरुं। बहुत वियोग या संयोग होने पर भी हमें कुछ भी मोहक या दो अलग नहीं है क्योंकि जैसा कि परसी भाग्य होता है हमें भी सभी सुखों को छोड़कर विशेष कार्य के लिए निवास करना पड़ता है। रामावत के समय में भी यही सब कुछ सहन कर रहा है राक्षसों का विनाश किया था और अभी भी ऐसा ही करने के लिए यहाँ हूँ। घोड़ा चोली बाल गुदाई, श्री राम का भाई गुरु की वाचा बहियो। राधो सीतो हनोत पाखो, दुःख सुख कासूं कहियां। समय परिवर्तनशील है। कभी बा दोवस्था में राम का भाई लक्ष्मण घोड़े को दौड़ाया था था और अन्य भी बाल्य विशेष खेल, कूदना, दौड़ना आदि साथ में किया गया था किन्तु समयातर परिवर्तन परिवर्तन और राम राम बन बन गया। तब लक्ष्मण ने भी अपने भाई के साथ, वे सभी बालसुलभ क्रीड़ाओं को छोड़ दिया और राम को ही परम गुरु स्वीकार कर उनके वचनों पर चला गया। लक्ष्मण सीता और हनुमान ने सदा सुख दुःख में साथ दिया, धैर्य बंधाया। उनके बिना राम को अकेला बनवास काटना दूभर हो जाता है। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं। कि यहां मेरे पास में तो ऐसा कोई नहीं है जो धैर्य बंधा संभव है, सुख दुःख की बात में उनसे कह सकूं। इस प्रकार से अन्ना रानी के विश्वसनीय सेव मैं इसे शब्द सुनाया। ऑनलाइन शब्द रूपी भेंट और झारी, माला, सुलझाद देकर उन्हें विदा किया। बाद रानी ने ये वस्तुएं सहर्ष स्वीकार की और जम्भेश्वरी के दर्शन की लालसा से जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ समय पश्चात जम्भेश्वरजी ने चितौड़ जाकर पुरस्कार को दर्शन दिया। संग्रामसिंह और अंडा रानी को शिष्य बनाया और उन विश्नोई इकाइयों को राणा की प्रार्थना पर वैसे उनके राज्य में बसाया। जो अब भी पुर, दरीबा, संभेलिया आदि गांवों में विश्नोई बसते हैं। (पूर्ण विस्तृत कथा के लिए जम्भार ग्रंथ पढ़ना) सुख दुःख की बात में उनसे कह सकू। इस प्रकार से अन्ना रानी के विश्वसनीय सेव मैं इसे शब्द सुनाया। ऑनलाइन शब्द रूपी भेंट और झारी, माला, सुलझाद देकर उन्हें विदा किया। बाद रानी ने ये वस्तुएं सहर्ष स्वीकार की और जम्भेश्वरी के दर्शन की लालसा से जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ समय पश्चात जम्भेश्वरजी ने चितौड़ जाकर पुरस्कार को दर्शन दिया। संग्रामसिंह और अंडा 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इकाइयों को राणा की प्रार्थना पर वैसे उनके राज्य में बसाया। जो अब भी पुर, दरीबा, संभेलिया आदि गांवों में विश्नोई बसते हैं। (पूर्ण विस्तृत कथा के लिए जम्भार ग्रंथ पढ़ना) सुलझाद देकर उन्हें विदा किया। बाद रानी ने ये वस्तुएं सहर्ष स्वीकार की और जम्भेश्वरी के दर्शन की लालसा से जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ समय पश्चात जम्भेश्वरजी ने चितौड़ जाकर पुरस्कार को दर्शन दिया। संग्रामसिंह और अंडा रानी को शिष्य बनाया और उन विश्नोई इकाइयों को राणा की प्रार्थना पर वैसे उनके राज्य में बसाया। जो अब भी पुर, दरीबा, संभेलिया आदि गांवों में विश्नोई बसते हैं। (पूर्ण विस्तृत कथा के लिए जम्भार ग्रंथ पढ़ना)

 शब्द -64
 ओ 3 म्-कर कर भूला मांड पिराणी, काचै कन्ध अगाजूं। काचा कंध गले गल जायसैं, बीखर जैला राजों। भावार्थः- हे जेतसी! आपके पिता लुनकरण आदि सैनिक किसी कमजोर को दबाकर राज्य हस्तगत करना चाहते हैं। यह कोई मानवता नहीं है। ये लोग अपने झूठे अहंकार के कारण वास्तव में अपने को, देश को और मानवता को भूल चूके हैं। इसीलिए जबरदस्ती किसी दूसरे के ऊपर बल प्रयोग करते हैं। इनको यह पता नहीं है कि यह कच्चा शरीर प्राप्त हुआ है, अलग-अलग नहीं करना चाहती है मिट्टी के घड़ने की तरह ये जल से गल जायेगा अर्थात् समय आने से पहले ही यह भ्रष्ट हो जायेगा। अगर यह शरीर हम नहीं रहेगा तो फिर यह राज्य हम कौन है और राज्य की भी तो सच्चाई नहीं है तो फिर यह व्यर्थ का प्रयास किसल। गड़बड़ गाजा कांय विबाजा, कण विण कूकस कांय लेना। कां बोलो मुख ताजो। जब यह सब कुछ स्थाई रहने वाला हम नहीं है तो फिर यह युद्ध में जाना समय ढ़ोल, तुरही, शंख आदि बाजे किसलय बजाये जा रहे हैं। ऐसी जोड़ी विजय प्राप्त करने जा रहे हैं क्योंकि वह विजय प्राप्ति का प्रयास किया गया है वह सब कुछ कण के बिना थोथा भूसा घास ही लेना है तो फिर इस निरर्थक घास चंचड़ा के लिए क्यों मुख से कटु अप्रिय झूठे वचन बोलते हो। क्या मुख से बोलने मात्र से ही सफलता मिल जायेगी। भरमी वादी अति अहंकारी, लावत यारी, पशुवां पड़े भिरांति। जीव विनासै लाहै कारणै, लोभ सवारथ खायबा खाज अखाजूं। जो लोग नित्यप्रति युद्ध में ही रत रहते हैं वे लोग सदसद् विवेक रहित, झूठे वाद-विवाद में रत और अत्यधिक अहंकारी हो जाते हैं और अपने जैसे लोगों से ही मित्रता रखती है। कभी किसी सज्जन पुरुष के पास में भी नहीं बैठे। जिससे पशु में भी इनका अपनत्व प्रेमिका भाव नहीं रहता है क्योंकि आप लाभ के कारण जीवों को मारते हैं। जिहन्ना का रस लोभ, स्वर्गिक उदर व्यवस्था और स्वार्थ के लिए अखाद्य पशु जीवों को भी मार कर खा जाता है। जब ये लोग पहले जानवरों को मार डालते हैं तो पीछे होता है भी मारने में जरा भी दया नहीं करते। जो अति काले लेजम काला तेपन खीना, जिहि का लंका गढ़ था राजों। बिन हस्ती पाख बिन गज गुड़ियां, बिन ढोला डूमै बागडीओ। जोने भी देश, काल, मर्यादा, धर्म का अतिक्रमण किया अति अतिशीर्षक, समय से पूर्व ही यमस्सों के हाथ चढ़ाने की मौत हो गया हो गया। ऐसे लोग इस संसार में बहुत हो रहे हैं किन्तु उदाहरण के लिए रावण लंका जैसे राज्य से सम्पन्न था। 'लंका सो कोट समंद सी खाई' लंका जैसा कोट समुद्र जैसा खाई था किन्तु वह भी नहीं बचा सका। इतने साधनों में सम्पन्न व्यक्ति के भी मृत्यु समय में न तो रथ में जुते हुए घोड़े, पाखड़े हाथी, ढ़ोल बजाने वाले डूम और न ही अर्थी के कंधा देने वाले पीछे शेर बच पाये थे। जाकै परसण बाजा बाजै, सो अपरम्पर का न जंपो। हिन्दू मुसलमानों, डर डर जीव के काजै। हे हिन्दू मुसलमानों! वह अपरम्पर परमपिता परमात्मा के दर्शन, स्पर्श से एकने प्रकार के अनहद बाजे बजने लगते हैं। उन बाजों को सुनते हुए साधक समाधिस्थ हो जाते हैं, ऐसे बाजों को भी नहीं सुनते हैं। मृत्यु दुःख से डरते हुए अपने जीव की भलाई के लिए अमृतमय भगवान परमात्मा की शरण ग्रहण करो। रावण रंका राजा रावण, रावत राजा, पाक खोज, मीरां मुलकां बेलघ फकीरां। घंघा गुरवां सुरनर देव, तिमर जू लंगा, आयसा जोयसा, साह पुरोहितां। मिश्रित व्यास रुंखा बिरखां आव घटता अतरा माहे कण विशेष। मृत्युत एक माघो। सामान्य राजा, रंक, राजाओं के राजा, सर्वोपरि सम्राट, खान, खोजी, मीर, जमींदार, गंगा के निवासी फकीर, गंगा गुरु, सुर नर, नरश्रेष्ठ, कौपीनधारी या नंगे सन्यासी, योगी, ज्योतिषी, साहू सेठ, पुरोहित, मिश्रा, व्यास , रूख, वर्षा इत्यादि सभी उम्र घटती जा रही है। से से काल के सामने किसकी विशेषता है, सभी को काल बराबर क्षीण कर रहा है। बिना भगवद्भक्ति सभी को एक ही मार्ग या तरीके से मरना पड़ेगा। पशु मुकेरू लहै न फेरूं कहे ज मेरुं सब जग केरुं। साचै से हर करै घनेरुं। बंधन से मुक्त हुआ पशु भी बंधन में नहीं आना चाहता है फिर फिर से बंधन में कैसे रख सकता है। किन्तु हे मानव! तू कहता है कि यह संसार संसार है, मेरा है, मेरे अधीन ही चल रहा है, मैं सदा ही सभी का बना हूं, यह कैसे हो सकता है। इसके लिए तेरे को अत्यधिक संघर्ष करना पड़ेगा फिर भी तू विफल रहेगा। जो वस्तु आप को उतार सच्ची मानता है उसकी प्रस्तुति की इच्छा अधिक करता है, वह वस्तु प्राप्त होना या नहीं होना चाहिए नहीं है। रिण छाणै ज्यूं बीखर जैला, तातें मेरुं न तेरुं। बिसर गया ते माघू, रक्तुरु नातूं सेतूं धातु कुमलावै ज्यूं शागूं। जो आप वस्तु प्यारी लगती है वह तो वन में पड़े हुए उपले (छांन्न) की तरह ही है जो थोड़े दिन पश्चात ही बिखर जाता है। इसीलिए वह धन दौलत न तो तेरा है और न ही मेरा है। यह तेरा-मेरा कुछ भी नहीं है। ऐसे धन यश लोभी लोग अपने गन्तव्य स्थान जाने के मार्ग को भूल जाते हैं। जो शरीर आप को नित्य समझते हो यह तो रक्त, बड्डी, वीर्य आदि सप्तधातुओं से बना हुआ है। जब तक इसको ये वस्तुएं उपलब्ध रहेगी और इनके ग्रहण करने की शरीर में योग्यता रहती, तभी तक यह जिंदा है नहीं तो वनस्पति की भांति कुम्हलाकर समाप्त हो जायेगा। जीव र पिंड विछोबा संस्थासी, ता दिन दाम दुगांणी। आड न पैको रती बिसोवो सीज़ै शून्य, ओपिंड काम न काजू। जो दिन शरीर और जीव का विच्छोह होगा, उस दिन यह तेरा धन दौलत रूपये कुछ भी काम नहीं आयेंगे, ये सभी परामर्श हो जायें। न तो मृत्यु समय में रति, पैसा रूपया सहायता, न ही ये कोई परिवार का सम्बन्धी ही सहायक होगा और यह तेरा पंचभौतिक शरीर भी किसी काम का नहीं रहागा। एक क्षण भी उस घर में रखना लायक नहीं होगा। आवत काया ले आयो थो, थोटा सूको जागो। आवत खिन एक लाई था, पर जातिं खिनी न के लिए। जब इस संसार में पंच भौतिक शरीर को मिला था तो एक बार भर का समय लगाया गया था। किन्तु बारिस जाने का समय यह भी छोड़ दिया जायेगा और एक क्षण का समय नहीं लगेगा। इस संसार में आते समय समय लाभ में था किन्तु छोड़कर जा समय हानि में है। भाग परपति कर्मा रेखां, दरगैं जबला जबला माघों। बिरखे पान झड़े झड़ जाल, तेपण तई न लागूं। पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार यह जीवन जीवन है और इस जीवन में किए गए कर्मों की रेखाएं खींचती है अर्थात् कर्मों के संस्कार स्थिर होते हैं। उन्माद कर्मों के अनुसार आगे स्वर्ग, नरक या मुक्ति का मार्ग न्यारा-न्यारा हो जाता है किन्तु यह सत्य है कि वृक्ष के पते एक बार जो झड़ते हैं वे फिर कभी नहीं लगते हैं। उसी प्रकार से यह जीवन एक बार व्यतीत हो गया फिर फिर भी जीवन दुबारा लौटकर नहीं आ सकता है। आने वाले जीवन से सर्वथा नवम्बर लेकिन होगा। सेतुग दगधूं कवलज कलीयों, कुमलावै ज्यूं शागुन। ऋतु बस्त्री आई, और भलेरा शागुन। जिन प्रकार से तेज सर्दी में कमल की कलियां जलती है और वनस्पति भी कुम्हला जाता है किन्तु वही बसन्त ऋतु आने पर फिर से पता फूल फल सम्पन्न हो जाता है। उसी प्रकार से कमल और वनस्पति की भांति निर्लेप और परोपकारी व्यक्ति अगर एक बार कष्ट में पड़ भी जाये तो समय आने पर प्रफुल्लित हो जाता है। भूला तेण गया रे प्राणी, तिहिं का खोज न माघुरु। विष्णु विष्णु भान लई न साई, सुर नर ब्रह्मा को न गाई। हे भूल में भटके प्राणी! तुमने उस परमात्मा और मुक्ति का रास्ता नहीं खोजा व्यर्थ में ही समय व्यतीत कर दिया। उस उस परमात्मा की प्रस्तुति के लिए बारम्बार विष्णु का स्मरण, जप एकग्र मन से करना चाहते थे। उस विष्णु का गुणगान किस देवता मानव और ब्रह्मा ने नहीं किया अर्थात् विपतिकाल में सभी ने विष्णु को ही याद किया और विष्णु ने ही विपति से छुटकारा विनया है। तातैं ज्वार बिन डसीरे भाई, बास बसंते कीवी न कमाई। ज्वार ताना जमसास दहैला, तातैं तेरी ने कहा बसाई। हे प्राणी! तैनें इस संसार में रहते हुए अगर शुद्ध कमाई नहीं की जाती है इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकामनाओं का पुण्य नहीं होगा जिससे छूट मिल सकती है। वहां पर बड़ा बड़ा विकिरल यमसास जला, काटेंगे, तब तू रोएगा तो स्पर्श छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलागा और न ही तेरा वश चलेगा। जप एकग्र मन से करना चाहते थे। उस विष्णु का गुणगान किस देवता मानव और ब्रह्मा ने नहीं किया अर्थात् विपतिकाल में सभी ने विष्णु को ही याद किया और विष्णु ने ही विपति से छुटकारा विनया है। तातैं ज्वार बिन डसीरे भाई, बास बसंते कीवी न कमाई। ज्वार ताना जमसास दहैला, तातैं तेरी ने कहा बसाई। हे प्राणी! तैनें इस संसार में रहते हुए अगर शुद्ध कमाई नहीं की जाती है इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकामनाओं का पुण्य नहीं होगा जिससे छूट मिल सकती है। वहां पर बड़ा बड़ा विकिरल यमसास जला, काटेंगे, तब तू रोएगा तो स्पर्श छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलागा और न ही तेरा वश चलेगा। जप एकग्र मन से करना चाहते थे। उस विष्णु का गुणगान किस देवता मानव और ब्रह्मा ने नहीं किया अर्थात् विपतिकाल में सभी ने विष्णु को ही याद किया और विष्णु ने ही विपति से छुटकारा विनया है। तातैं ज्वार बिन डसीरे भाई, बास बसंते कीवी न कमाई। ज्वार ताना जमसास दहैला, तातैं तेरी ने कहा बसाई। हे प्राणी! तैनें इस संसार में रहते हुए अगर शुद्ध कमाई नहीं की जाती है इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकामनाओं का पुण्य नहीं होगा जिससे छूट मिल सकती है। वहां पर बड़ा बड़ा विकिरल यमसास जला, काटेंगे, तब तू रोएगा तो स्पर्श छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलागा और न ही तेरा वश चलेगा। तैनें इस संसार में रहते हुए अगर शुद्ध कमाई नहीं की जाती है इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकामनाओं का पुण्य नहीं होगा जिससे छूट मिल सकती है। वहां पर बड़ा बड़ा विकिरल यमसास जला, काटेंगे, तब तू रोएगा तो स्पर्श छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलागा और न ही तेरा वश चलेगा। तैनें इस संसार में रहते हुए अगर शुद्ध कमाई नहीं की जाती है इस जीवन के समाप्त होने पर कष्ट उठाना पड़ेगा क्योंकि तेरे पास वह शुभकामनाओं का पुण्य नहीं होगा जिससे छूट मिल सकती है। वहां पर बड़ा बड़ा विकिरल यमसास जला, काटेंगे, तब तू रोएगा तो स्पर्श छुड़ाने वाला कोई नहीं मिलागा और न ही तेरा वश चलेगा।

शब्द -65
 ओ 3 म्-तौवा जाग जु गोरख जाग्या, निरह निरंजन निरह निराधार। जुग छतिसों एकै आसन बैठा बरती, अवर भी अबधू साधु। भावार्थः- अवधू को सदा जागृत सचेत रहना चाहिये और कुछ अवधूत रहते हैं, वे कभी समाधि अवस्था को प्राप्त होते हैं किन्तु जितने जागृत गोरख रहना कोई नहीं रहा। वे केवल अवस्था में माया रहित बिना किसी सहारे केवल एक, स्वयं समर्थक होकर समाधिस्थ। इश्क लम्बी समाधि लगी जो छतिस युग एक ही आसन पर बैठे व्यतीत कर देये। वास्तव में जागना तो ऐसा होता है। ऐसे जागृत तो कोई बिरले ही होते हैं। तौवा त्याग ब्रह्मा त्याग, अवरोवार भी त्याग त्याग। तौवा भाग जो ईश्वर मस्तक, अवर भी मस्तक भागु। संसार में कईनेक त्यागी हैं। किसी ने कुछ कुछ तो कुछ से कुछ कम त्याग किया है किन्तु जोना त्याग प्रजापति ब्रह्माजी ने किया है कि किसी ने नहीं किया अर्थात् ब्रह्माजी ने समृद्ध सृष्टि की रचना की। इसीलिए सभी के पिता है तो भी उनके पुत्रों से नहीं है और न ही उनसे कुछ प्रस्तुति की उम्मीद है, सदा निर्ल भावना भाव से रहते हैं। जितना भाग्य ईश्वर के मस्तिष्क में लिखा है किना अन्य दूसरों के कहां है। ईश्वरत्व की प्रस्तुति भी तो ज्ञान तपस्या शुभ कर्मों से ही घटित है। वह सम्बन्ध है पास अधिक है वही ईश्वर है। तौवा सीर जो ईश्वर गौरी, अवर भी कहियत सीरुं। तौवा बीर जो राम लक्ष्मण, अवर भी कहियत बीरुं। पति-पत्नी का सम्बध प्रेमसंसार में कहीं-देखा देखा जाता है किन्तु जाना सम्बन्ध प्रेमभाव अटल शिव पार्वती का है, उपयोगना अन्य दूसरों में कहां है। और भाई-भाई में आपस में प्रेमभाव मधुर सम्बन्ध कहीं-कहीं देखने को मिल रहा है किन्तु जोना राम लक्ष्मण में प्रेमभाव था उत्पना अन्यत्र कहां है। तौवा पाग जो दश शिर बांदी, अवर भी बांधत पागूं। तौवा लाज जो सीता लाजी, अवर भी लाजत लाजूं। सिर पर पगड़ी बांधना, महता और अहंकारी होना द्योतित कर है। संसार में पगड़ी बांधने वाले तो कई हैं जो स्वयं साम्राज्यण बांध बांधते हैं किन्तु जितनी अहंकारता से पगड़ी रावण ने बांदी, किसी ने भी नहीं किया। क्यांकी जिसका एक सिर होता है वह भी अपना कुछ अस्तित्व रखना चाहता है और जिसका दशका सिर हो तो दशा ही क्या होगा। जीवन को बर्बाद करने के लिए एक सिर (अहंकार) लेकिन पर्याप्त है कि दस हो तो उसकी तो रावण जैसी ही हालत होती है। इस दुनिया में सती, लज्जावती अने स्त्रोतियां है किन्तु जितनी सती लज्जावती सीता थी, उनी और नहीं हो सकी। स्त्रीत्व जाति का लज्जा सतीत्व ही भूषण है। इन भूषणों से सीता ही पूर्णरूपण विभूषिता हो सकी था। तौवा बाजा राम बजाया, अवरुद्ध बाते राम। तौवा पाज जो सीता कारण लक्ष्मण बांदी, अवर भी बांधत पाजं। मानव जीवन धारण कुछ लोग इस जीवन में शुभ कार्य करने की घोषणा कर रहे हैं। विश्वक यह बात बात बाजा बजाकर बता देना है। किन्तुल से सफल कितने हैं? किन्तु जो प्रकार से श्रीराम ने बाजा बजाया जीवन सफल करने, करवाना की समाज में प्रतिज्ञा पूर्ण की, ऐसा कौन हो सकता है। इस संसार में कई लोग नदी-नाले पार करने के लिए छोटे-मोटे पुल बांधते अर्थात् संसार सागर से पार उतरने के लिए छोटे-मोटे धर्म कर्म और मर्यादा का पुल बांधते हैं। किन्तु जैसा पुल सीता की प्रस्तुति के लिए लक्ष्मण ने बांधा, वैसा कौन बांध हो सकता है अर्थात् मर्यादा, धर्म की स्थापना के लिए मुख्य रूप से लक्ष्मण ने किया, ऐसा अन्य से असम्भव है या तो पंचवटी में सीता के रक्षा रेखा रेखा लक्ष्मण ने खींची, वैसी कौन खींच सकता है। तौवा काज जो हनुमत सारा, अवर भी सारत काजूं। तौवा खागज जो कुम्भलन महारावण खाज्या, अवर भी खाती खाड़ी। संसार में में बहुत देखे गए हैं किन्तु जोनी सेवा निःस्वार्थ भाव से हनुमान ने श्रीराम की, की थीगी और कौन कर सकता है। निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य से ही आज हनुमान पूजनीय हो गए हैं भोजन भट्ठा तो बहुत देखे गए हैं किन्तु जितना भोजन कुम्भकरण, महिरावण किया जाता है जिसे बनाना हो सकता है। किन्तु वे भी अधिक भोजन के बल पर जीवन को स्थिर नहीं कर सकते, काल के गाल में समा। तौवा राज दुर्योधन माव, अवरो भी मणत राजू। तौवा रागज कन्हड़ बांणी, अवरो भी कह रहे हैं। राजा तो कई अलग हैं और राजकाज में मदमस्त भी हैं हैं किन्तु जितना अभिमान दुर्योधन ने किया, वैसा किसी ने नहीं किया। दुर्योधन के अभिमान ने ही महाभारत युद्ध करवाया जिससे सर्वनाश हुआ। बा दोवस्था में गौवें चराते हुए बंशी तो कई बालक बजाते हैं किन्तु जितनी मधुर ध्वनि में बंशी कृष्ण ने बजायी, कोई और कौन हो सकता है। अन्य लोगों की बंशी में वह खिंचाव कहां है कृष्ण की बंशी में था। तौवा माघ तुरंगम ते, तटू ताना भी माघुरु। तौवा बागज हंसा टोली, बुगला टोली भी बागु। कुछ लोग सवारी के लिए टट्टू का उपयोग कर मार्ग तय कर कर लेते हैं, किन्तु उन टट्टूओं में घोड़े की तरह तेज कहां है जो अतिशीतिता से मार्ग तय कर सकते हैं। वैसे तो बगुले भी टोली बनाकर किसी तालाब किनारे बाग में बैठते हैं किन्तु जो मानसरोवर झील और हिमालय के देवदारू का बाग हंसों की टोली उपलब्ध है, वह मानसरोवर बगुलों को कहां मिल पाता है अर्थात् जो धर्म साधना कार्य में मन्दगामी है, वे तो संसार रूपी बाग में अल्प सुख तालाब ही मिल पाता है और जो शीघ्रगामी है, साधना तत्परता से करता है उन्हें हंसों की भांति दिव्य स्वर्गीय सुख मानसरोवर की प्रस्तुति होती है। तौवा नाग उद्याबल कहिये, गरुड़ सीया भी नागुरु। तौवा शागज बेली, कूकर बगरा भी शागूं। सर्पों में कई ऐसे छोटे-मोटे सर्प है जो गरुड़ से भयभीत रहते हैं और उसका भोजन बन जाता है किन्तु शशनाग, वासुकि जैसे उत जाति के नाग बहुत कम कम होते हैं। वासुकि जैसी करामात सेट कहां है। और मरुस्थल प्रदेश में होने वाली कूकर, भगराह कन्टीली विषम वनस्पति उस बेली और अमृत फलमे वनस्पति की बराबरी कैसे कर सकते हैं अर्थात् जो सज्जन गुणवान मधुर बन सकता है उसकी बराबरी दुर्जन गुणरहित, झूठ कुवचन वक्ता पुरूष कैसे कर सकता है। जां जां शैतानी करे उर्फु, तांबे महल ज फलियां। जुरा जम राक्षस जुरा जुरिन्द्र, कंश केशी चंडरुं। मधु कीचक हिरणक्ष हिरणकुश। हे जैतसी! जहां कहीं भी शैतान लोग उर्फ ​​कर रहे हैं। अपने दुर्व्यवहार से कार्य कर उसके फैलाव कर रहे हैं त्यूं त्यूं ही बुराता अधिक बढ़ती है। उसी वृति के कारण ही जबरदस्त यम के समान राक्षस पैदा हो जाते हैं। इन राक्षस वृत्तिधारी राजाओं ने सभी को जबरदस्ती से अपने वेश में करने की कोशिश की थी। उसी प्रकार से अब भी तुम्हारे पिता जा रहे हैं। जब राक्षस वृत्तिधारी कंस, केशी, चन्द्रू, मधु, कीच, हिरणक्ष, हिरण्यकुश्यपू भी नहीं बचने के लिए इन सैनिकों सहित अन्यायकारी पिता की क्या दशा इच्छा। चक्रधर बलदेऊ, पाट वासुदेवों। मंडलिक कांय न जोयबा, इंहिं धर उपर रती न रहीबा राजरु। अंत समय में इन राक्षस सदृश कंस आदि मानवों ने भी चक्रधारी श्रीकृष्ण और हलधर श्रीबलराम को ही सामने देखा था अर्थात् इनकी मृत्यु परमात्मा के हाथों से ही हुआ था। उन सम्राट राजाओं को क्यों नहीं देखना इस धरती पर सार्वभौम राज्य था किन्तु जब अन्याय किया तो क्षण में ही राज्य चला गया। तो फिर इस समय के इन छोटे-मोटे राजाओं की क्या औते है, किस बुलूते पर यह झूठा अभिमान कर रहा है से किसी का हक छीनने जा रहे हैं। यह अन्याय न तो कृष्ण के रहते हुए चल सका और न ही मेरे यहां रहते हैं चलनेगा।

 शब्द -66
 ओ 3 म्-उमाज गुमाज पंज गंज यारी, रहिया कुपहीया शैतान की यारी .. भावार्थः- हे महलूखान! तू नित्यप्रति नमाज पढ़ना ईश्वर को याद करने वाला व्यक्ति होकर भी इस प्रकार से खींचसिंह पकड़ने कैद कर दिया और अब युद्ध के लिए तैयार होकर आ गया, यह तेरा कैसा उन्माद और अहंकार है। तूने सदा मन इन्द्रियों की बात स्वीकार की, बुद्धि से भलाई नहीं सोची। इसीलिए में इस स्थिति में पंहुचा दिया गया है। अब तू इनकी मित्रता छोड़कर विवेकशील बनकर जनता की भलाई कर। तुमने शैतान लोगों से मित्रता कर यह कुमार्ग अपना लिया है। शैतान लो भल शैतान लो, शैतान बहो जुग छायो। शैतान की कुबड़ी न किती, ज्यूं काल में कुचीलुरु। हे राजन्! तुम्हारा यह तो कर्तव्य बनता है कि जो वास्त्विक में ही शैतानी करने वाला है और जो बदमाशों के भी बदमाश, चोर, डाकू, अपराधी है उन्हें आप अपने अधिकार में ले जाने वाले दंडित कर सकते हैं किन्तु जो निरपराधी लोग हैं उन्हें बिना प्रयोजन के युद्ध के लिए ललकारना तुम्हारी बुद्धिमानी नहीं है। जो स्वभाव से ही अपराधी लोग है, हम तो कुबदा यानी समाज में किसी प्रकार का उपद्रव करना और करवाना ही खेती धन्धा है। जिन प्रकार से शांत वातावरण में कभी कोई दैविक उपद्रव जैसे तूफान, ओले, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि आते हैं और सभी कुछ तहस नहस कर देते हैं, उसी प्रकार से ये शैतान लोग होते हैं। बे राही बे किरियावन्त कुमती दौरै जायसै, शैतानी लोड़त रईस। जां जां शैतान करै उर्फर, तांबे माउंट न फलोंियां। वे शैतान लोग शुद्ध सच्चे मार्गहीन, धर्म क्रियाकर्म रहित, कुटिल होते हैं। इसीलिए यह जीवन भी उनके दुःखमय होता है और परलोक भी नरकमय हो जता है। शैतान लोग का स्वभाव ही होता है, जब उन्हें आवश्यकता पड़ती है तो वे झट अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए आप से मेल मिलाप भी कर लेते हैं और उनके स्वभाव सिद्ध हो जाते हैं हम आपसे पहले लेते हैं। जहां-जहां पर भी शैतान लोग ने अपना कामूत दिखलाई है वहां पर समाज, देश, व्यक्ति और अहंकारकर्ता शैतान भी पूर्णतया फलीभूत नहीं हो सकता है। वे लोग न तो स्वयं उन्नति कर सकते हैं और न ही और करना करने के लिए वे हैं। नील में कुचील करबा, साधुनी थूलू। पोहप में परमला जोति, यूं सुरग में लीलुरु। शैतान लोग नीले वस्त्र पहनकर अपने दिल की कालुश्यता कुकर्म कर प्रगति कर दे रहे हैं। वे लोग अन्दर और बाहरी परिवेश नील अभद्रता को ही पसन्द कर रहे हैं। उसी वेश में रहकर बुरा कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं और साधु सज्जन पुरुषों के साथ स्थूल वार्ता और बुराता का व्यवहार ही, तो वे लोग ज्ञान कहां से प्राप्त करेंगे। जिन प्रकार से पुष्प में सुगंध सर्वत्र समायी हुई है, उस प्रकार से परमात्मा की ज्योति भी सर्वत्र व्यापक है और वही ज्योति उन दुष्टजनों में भी है किन्तु ज्योति का प्राकट्य वे लोग नहीं कर सकते हैं। उस प्रकार से स्वर्ग में भी परमात्मा की लीला सर्वत्र समायी हुयी है अर्थात् स्वर्ग तो वैसे हो सकता है जहां पर परमात्मा की दिव्य लीला का सर्वत्र अनुभव किया जाये। ऐसा होने पर मनुष्य का अन्दर से बुराता निकल हो सकता है। संसार में उपकार ऐसा, ज्यूं घन बरषांत नीरुं। संसार में उपकार ऐसा, ज्यूं रूही इन खीरुं। हे राजन्! इस संसार में तो उपकार ऐसा करना चाहते हैं, जो प्रकार से बादल जल बरसाते हैं और संसार में परोपकार तो उस प्रकार से ही करना चाहते हैं, जो प्रकार से गाय, भैंस आदि के शरीर में से दूध उत्पन्न होता है जीवन का विकास होता है। बादल निष्प्रयोजन ही आकर वर्षा करता है और गऊ आदि घास खाती है, उससे दूध पैदा होता है वह भी परमार्थ के लिए होता है। उसी प्रकार से माणव भी भी संवेदनशीलता से सेवा करनी चाहिए। किसी का धन अपहरण कर उसे दुःख नहीं करना चाहिये।

 शब्द -67 (शुक्ल हंस)
 ओ 3 म्- श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण भुय नागौरी, महे ऊंडे नीरे अवतार लियाओ। भावार्थः- संसार के समृद्ध गढ़ों में भगवान विष्णु का धाम बैकन्थ लोक सर्वश्रेष्ठ गढ़ है। उसी श्रीगढ़ से आल (हाल) चलने से संबंधित है कुल मिलाकर में हूं और इस से मिलकरुलोक में भी नागौर की भूमि में स्थित पीपासर में, जो भूमि ग्रामपति लोहट के अधिकार में है और उतरा भूमि है जहां पर अत्यधिक गहराई में पानी मिलता है, वह उम्मी जलने वाले देश में मैनें अवतार लिया है अर्थात् परम धाम को अकस्मात छोड़कर इस भूमि में मुझे आना पड़ा है। आगे यहां पर आने का मुख्य उद्देश्य बतला रह रहे हैं। अठगी ठंगण, अदगी दागण, अगजा गंजण, ऊनथ नाथन अनरु नवन। जो पुरुष पाखण्ड कर दूसरों को ठगते है किन्तु स्वयं किसी अन्य से नहीं ंठगे जाव, ऐसे -2 चतुर लोग को ठगने के लिए अर्थात् उनका ठग पाखंड विद्या का हरण करने के लिए, जो अब तक धर्म का दाग, चिन्ह विशेष धारण नहीं किया जाता है धर्म धर्म के चिन्ह से चिन्हित कर सद्मार्ग में लाने के लिए, जो दूसरों के लिए सच्चे धर्म का भी अपने ज्ञान चातुरी से खण्डन कर देते हैं और अपने झूठे पखनदमय धर्म मार्ग को भी अपने स्वार्थवश सत्य बतलाते हैं। ऐसे लोगों के विश्वास का नाश करने के लिए, उदंदता से अपनी इच्छा निर्धारित विचरण करने वाले लोग के मर्यादा रूपी नाथ डालने के लिए और अभिमान में जकड़े लोग जो किसी के सामने सिर नहीं झुकाना पता, नम्रता शीलता नहीं पता उन्हें झुकाने के लिए, नम्रशील बनाने के लिए यहां पर मरुभूमि में हूँ। कांहि को में खैंकाल की, कांही सुरग मुरादे देसां, कांही दौरे दीयूं। यहां आ कर मैनें किसी को तो समय-समय पर ही नष्ट कर दिया अर्था राम, कृष्ण, नृसिंह आदि रूप में तो दुष्टों को नष्ट किया गया और किसी सज्जन ज्ञानी ध्यानी भक्त पुरुष को इच्छा इच्छा कर्मानी स्वर्ग या मोक्ष की प्रस्तुति करवाई। यह इस समय भी और पूर्व पूर्व अवतारों में भी और अन्य किसी-किसी कोर्ड नरक भी दिया क्योंकि उन लोगों के कर्मों ही थे। इसीलिए कर्म करना मानव के अंत में किन्तु फल देना ईश्वर के अधीन है। होम समुद्रो दिन ठावीलो, संहस रचीलो छापर नींबी दुनपुरू। गांव सुंदरीयो छीलै बलदीयो, छन्दे मन्दे बाल दीयो। हे बीदा! तू अपने आदमियों को दिन निश्चित कर-जहां पर प्रेषगा। में वही पर ही हजारों रूप धारण कर यज्ञ किया हुआ बादल दंगा। बीदा हजारों जगह तो नहीं भेज सका किन्तु जहां-जहां पर भेजा गया था, के-बीच का बतलाते हैं जैसे- छापर, नींबी, द्रोणपुर, सुन्दरियो, चीलो, बलदीयो, छन्दे, मन्दे, बालदीयो और- अजमहै होता नागो वाड़े, राण थम्भै गढ़ गागरणो। कुं कुं कंचन सोरठ मरहठ, तिलंग दीप गढ़ गागरणो। अजमेर, होता, नागौर, बाड़े, रैण, थम्भोर, गढ़, गागरणो, कुं कुं कश्मीर, कंचन (कच्छ) सौराष्ट्र महाराष्ट्र या मेरठ, तिलंग (तेलंगाना) तेलगु देश, द्वीप रामेश्वरम, गढ़ गागरोन और भी-गढ़ दिल्ली कंचन अर दूणायर, फिर फिर विश्वं परखै लीस। थटे भवणिया अरु गुजरात, आछो जाइव लाख मालबै। पर्वत मांडू मांही ज्ञान कथू। दिल्ली, गढ़, कंचन नटरी और देहरादून आदि स्थान में यज्ञ किया जाता है। मैनें थे पर व्यापक भ्रमण किया और लोग को जर्नल, परखा है और थट्ठ, थंबनिया गुजरात, आछो जाई, श्यालक, मालवा, पर्वत (मांडू) जैसलमेर इत्यादि में जाकर ज्ञान का कथन किया जाता है उन लोगों को चेतावनी है। खुरासाण गढ़ लंका भीतर, google खेऊ पैर ठयो। ईडर कोट उजंणी नारी, काहिदा सिंधपुरी विश्राम लियाओ। खुरासाण और गढ़ लंका माने भी जाकर पर पर हवन किया और हवन समाप्ति पर अंगारों पर Google चढ़ाया था, जिससे वहां का वातावरण हुआ था। ईडर गढ़ उज्जयिनी नारीरी और कुछ समय तक किनारे किनारे बसी हुई जगन्नाथपुरी में भी विश्राम किया जाता है। कांय रे साइरा गाजै बाजै, घुरे घूर हरे करे इंवरी आप बलुरु। किंहिलता सिररा मीठा होता है, किंव अवगुण विशार खरुं। जब जम्भेश्वर जी जगन्नाथपुरी में किनारे पर विराजमान थे। उसी समय ही पर पर लोहेगों में एक महामारी फैल गया, जोको के स्थानीय भाषा में गूँडिचा कहते हैं। इधर शीतला चेचक कहते हैं, वह फैल पूजा था। लोग आ कर जम्भदेवजी से प्रार्थना करने लगे। तब उन लोगों को अभिमंत्रित जल पत्थर पिलाया, जिसके साथ बीमारी मिट गया। उसी महान घटना की यादगार में मन्दिर बनाने की प्रार्थना उन लोगों ने गुरुदेव से कही, तब उन्हें मंदिर बनाने की आज्ञा तो दी लेकिन उसके अन्दर कोई मूर्ति रखने की मनाही कर दी। अब भी जगन्नाथपुरी में वह मंदिर जियो का तोंग आलममान है। जब जगन्नाथजी की सवारी निकलती है तो सात दिन तक वैसे पर विश्राम होता है और वही पर ही प्रसिद्ध जगन्नाथजी मंदिर से पश्चिम पश्चिम दिशा में एक किलोमीटर दूर जम्भेश्वर महादेव का मंदिर भी बना हुआ है और वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव पूजनीय है और उत्सव समय आषाढ़ महीने में सवारी भी निकलती है। यह मैनें अपने आंखों से देखा है किन्तु पूर्ण जानकारी नहीं कर सका। यहां पर मैनें प्रसंगवश पाठ की जानकारी के लिए लिखा है। अब बीदे से कह रहे हैं कि हे बीदा! मैनें उस जगन्नाथपुरी के समुद्र को देखा जाता है और उसकी महान ऊंची-ऊंची लहरों को भी देखा जाता है। वे लहरें दूर से अधिक भैया लगती है स्नानार्थी को डराट्स है। किन्तु जब हिम्मत कर अन्दर पंहुच जाता है तो वे लहरें कुछ भी नहीं बिगड़ हो सकता है। गुरु जम्भेश्वरी कहते हैं कि उस समय मैनें समुद्र से पूछा गया था कि हे सायर! तू क्यूं गर्जना कर यह व्यर्थ की ध्वनि कर रहा है। इस घुरघुराने से ते तेरा अभिमान ही बढ़ते किन्तु बल घटेगा। जब तू बलहीन हो जायेगा फिर फिर क्या कर सकता है और यह भी बताता है कि पहले तो तेरे में कौनसा गुण था क्योंकि कारण मीठा था और फिर कौनसा अवगुण हो गया जिससे तू खारा नमकीन हो गया। जब तेरे में अभिमान नहीं था तब तू मधुर अमृतमय था और जब अभिमान आ गया तो कड़वा हो गया। मानव के लिए भी यही नियम लागू होता है। जद वासग नेतो मेर मथाणी, समंद बिरोल्यो ढोय उरुं। रेनियर डोहण पाननी पोहण, असुरान बेरी करण छलुरु। देव-दानवों ने जब मिलकर समुद्र मंथन द्वारा अमृत प्राप्ति का प्रयास किया था वह समय वासुकी नाग की तो रस्सी तैयार था। सुमेरु पर्वत की मथानी (झेरणी) बनायी थी और देव-दानवों ने मिलकर मंथन प्रारम्भ किया तो वह मथानी वजनदार होने से देव दानव नहीं संभाल संभव नीचे नीचे धरती पर आकर टिके था तो दोनों पक्षों ने ही जाकर भगवान विष्णु से पुकार की थी। उस समय विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर सुमेरु मथणी को ऊपर उठाया था। फिर मंथन कार्य चलने लगाया समुद्र से कईनेक दिव्य रत्न निकलने लगे किन्तु उन असुरों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया, क्योंकि कारण से कई रत्न तो देवताओं को प्राप्त हो गया था। चैदहवन रत्न अमृत निकला जिसके लिए देव दानव आपस में बंटवारा नहीं कर सकते हैं। उसके लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत देवताओं को पिलाकर अमर करना थे किन्तु राहु दैत्य भी पी चुका था वह भी अमर हो गया था। भेद खुलने पर देवताओं ने सिर काट डाला, एक के दो हो कहना। राहु और केतु ये भी अमर हैं, सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर ग्रेट करते हैं। जब समुद्र से अमृत निकाल दिया गया तो पीछे कड़वा ही शेष रह गया है। इसीलिए हे बीडा! वह बहुत महान अमृतमय समुद्र भी अभिमान करने से अमृत खो बैठा और दयनीय दशा को प्राप्त हो गया, उसके सामने तेरी क्या औत है। तेरा भी यह अभिमान करना व्यर्थ है और भी ध्यानपूर्वक श्रवण कर। दशशिर ने जद वाचा दीन, तद महे मेल्ही अनंत छलुरु। दह शिर का दश मस्तक छेद, ताणु बाणु लडू कलुरु। लंकापति रावण ने पहले कठोर तपस्या की थी और शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न कर वरदान प्राप्त कर लिया गया। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि उस समय वरदान देने वाला मैं भी था और रावण राज्य विशालता ऐश्वर्य को प्राप्त हो गया था। तब मैं ही राम रूप में सीता सहित वन में आ गया था। मैनेंदर रावण को छत के लिए सीता को भेजा गया था। रावण जबरदस्ती नहीं ले गया था। रावण को मारने के लिए सीता को निमित बनाया गया था, वैसे रावण को कैसे मारना और फिर मैनें सीता को छुड़ाने के बहने से स्वयं द्वारा किए गए प्रजनन दिये हुए दस सिरों को उन तीखे बाणों द्वारा काट डाला और रावण सहित पूरे परिवार को तहस नहस कर डाला था। सोखा बाणु एक बखनु, जाका बहु परमाणु निश्चय राखी उपस्थित बलुरु। जब रावण को मारने के लिए लंका पर चढ़ाई की थी, उस समय भी बीच में समुद्र आ गया था। तीन दिन तक बिस्तर करने पर भी वह बुरा नहीं मान तो फिर धनुष पर बाण संस्कार कर दिया गया था और उसे लगने का विचार पक्का हो चुका था। उस समय भी समुद्र अपने हठता भूलकर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित था। इसके बहुत प्रमाण है। अगर घर विश्वास नहीं है तो शास्त्र उठाकर देख ले। उस समय समुद्र और रावण ने अपना बल निश्चित ही तोड़ देखा देखा था और उस अभिमान के बल पर ही गर्व किया था किन्तु उन दोनों का गर्व चूर-चूर कर डाला था। हे बीदा! जब रावण और समुद्र का अभिमान भी स्थिर नहीं रहना सका। अहंकार के कारणों को ही लहरा होना पड़ा तो तेरी मनी सी ताकत है, किसके बल पर तूं अभिमान करता है। राय विष्णु से बाद नजज, कांय बधारो दैत्य कुलुरु। महे जल म्हेई थेपेशन थेई, सादिषा की लच्छ कुलुरु। हे बीदा! आपका सामने प्रत्यक्ष देवधिदेव विष्णु विराजमान है, व्यर्थ का वाद-विवाद नहीं। ऐसा कर देति कुल को क्यों बढ़ाता है। आपका देखा-देखा और कितने मानव से दानव हो जायें। फिर तू जानता है कि दानवों की क्या गति हुई है और क्या हो रही है। हम तो अपनी जगह पर हम ही है, तू हमारे बराबरी नहीं कर सकते हैं और तू अपनी जगह पर तो तू ही है, हम लोग को तू अपने जैसा नहीं बना सकते हैं। उन महापुरुषों के लक्षण तो बहुत ही ऊंचे थे, जिसका तू नाम लेता है वे तेरे सदृश अधम नहीं थे। गाजै गुड़के से क्यूं वीहै, जेज़ल जाकी संहस फनुरु। मेरे माय न बाप न बहन न भाई, साख न सैंण न लोक लोग। आप इस प्रकार के झूठे गर्जन तनर से कौन डरता है और डरने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि आप पास कुछ शक्ति तो नहीं है, केवल बोलना ही पता है पास पासनाग के हजारों फणों की फुट के सदृश शक्ति की ज्वाला है ते तेरे इस मामूली क्रोध की ज्वाला से भयभीत कभी नहीं होता है। कोई सामान्य गृहस्थजन हो सकता है, तेरे से कुछ भयभीत हो जाये क्योंकि उसका अपना घर घर है, उनको तूर उजाड़ भी हो सकता है किन्तु जिसका माता, पिता, बहन, भाई, सखा सम्बन्धी कोई नहीं है उसका तू क्या बिगाड़ लेगा। बैकुंडठे बिश्वास बिलम्बण, पार गिरांते मात खिनुरु। विष्णु विष्णु तू भान रे प्राणी, विष्णु भानता अनंत गुण। हम तो बैकुन्ठलोक के निवासी हैं तो तू विश्वास कर और उस अमरलोक प्राप्ति का प्रयास कर। जिसके तेरा सदा के लिए जन्म-मृत्यु छूट जायेगा। इस अवसर पर प्राप्त करने के लिए भी मृत्यु प्राप्त नहीं हो जाना कुछ शुभ कमाई कर लेना। हे प्राणी! विष्णु के पास परमधाम में पंहुचने के लिए तू उसी परमात्मा विष्णु का स्मरण कर, उसका स्मरण भजन करने में अनंत फलों की प्राप्ति इच्छा। विष्णु के भजन से परम अक्षषा रूप मोक्ष की प्राप्ति ही अनतत फल है। सहंसे नावें, सहंसे ठावें, सहंसे गावें, गाजे बाजे, हीरे नीरे। गगन गहीरे, चवदा भक्त, तिहूं तृलोके, जंबू द्वीपपे, सप्त पताले। विषलृ ग्रंपके धातु से विष्णु शब्द की व्युत्पाष्ट होता है अर्थात् विवेति व्याप्नोति इति विष्णु जो सर्वत्र कण-कण में सता रूप से व्यापक हो वही विष्णु है। ऐसे विष्णु का स्मरण करने का अर्थ हुआ कि सर्वत्र सता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेना है। उसी शक्ति को गुरुदेव जी सर्वत्र बताते हुए कहते हैं कि उस विष्णु रूप सता के हजारों अनगिनत नाम है। हजारों अनन्त स्थान है और उसी प्रकार से सकने वाला गांव है और भी सता व्यापक होता हुई गर्जना, बाद्य, हीरे, जल, गगन गम्दर समुद्र और चदह भुवनों में, तीनों लोकों में और इस जंबूद्वीप में और सातों पातालों में हीश्त ही सता त्यामान है। अई अमाणो, तत समाणो, गुरु फुब्रो, बहु परमाणु। अइयर्स उइयस निरजत सिरजत। इस पंचभौत जड़मय संसार में वह ज्योतिरूप तत्व समाया हुआ है। उस परम तत्व की ज्योति से ही यह सचेतन होता है यह गुरु परमात्मा का ही कथन है। इसीलिए सत्य है इसमें बहुत ही शास्त्र, वेद, आपत पुरुष प्रमाण है। यह जड़ चेतनम संसार पर परमतत्व रूप परमात्मा की ही सृजनला का कमाल है और उसकी ही जब यह समेटने की इच्छा होती है तो यह लिस को भी प्राप्त हो जायेगा, यह भी वह की हीरामात है। नान्ही मोटी जीया जरुणी, एति सास फुरंतै साररु। कृष्णी माया घन बरष्ता, महे अगिनि गिनू फुहारार। इस दुनिया में कुछ छोटा और कुछ बड़ा जीवों की जातियां है। छोटी जाति की उत्पत्ति स्थिति और मृत्यु काल संकल्प होता है और बड़ा जाति जैसे मानवाद का समय अधिक होता है। गुरु जम्भेश्वरी कहते हैं कि में अपने माया द्वारा इनका सृजन कर रहे हैं। किन्तु उत्पति में समय एक एक श्वाआस को बाहर निकलना और अन्दर जाने का मतलब है अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच का निर्णय तो एक श्वास का ही होता है अगर श्वांस आ गया तो जीवन है, नहीं तो मृत्यु। जिन प्रकार से कृष्ण परमात्मा की माया बादलों द्वारा जल बरसाती है किन्तु अनगिनत बूंदे भी गिन गिन कर दीली जाती है अर्थात् जहांना बर्सााना है वहां उड़ा ही बरसेगा न तो कम और न ही ज्यादा। उसी प्रकार से सृष्टि की छोटी-मोटी जीया जरुणी भी पानी की बूंदों की तरह अनगिनत भीड़ पर परमात्मा के द्वारा गिनी जा सकता है। परमात्मा की दृष्टि से बाहरी कुछ भी नहीं है। कुण जानै महे देव देवदेवों, कुण जानै म्हे अलख अभेव। कुन जानै महे सुरनर देवों, कुन जानै इकारा उत्तरी भेड़ों। बीएडी द्वारा जब वस्त्रविहीन कर यह देखने का प्रयास किया गया कि ये स्त्री है या पुरुष। तब इस प्रसंग का इस प्रकार निर्णय लेने से कहा कि कौन जानता है कि मैं देव या कुदेव हूँ। कौन जानता है कि मैं अकेला या लखने योग्य हूँ। यह भी कौन जान सकता है कि मैं देवीदादेव विष्णु है या सामान्य देवता है आप पास मेरा आदि और अंत को जानने का उपाय क्या है। कुण जानै म्हे ग्यानी के ध्यानी, कुण जानै म्हे केवल जानानी। कुण जानै महे ब्रह्माज्ञानी, कुण जानै म्हे ब्रह्माचारी। बुद्धि द्वारा अगम्य को बुद्धि द्वारा कैसे जाना जा सकता है। इसीलिए मैं जानना है या ध्यानी हूं यह बात आप नहीं जान सकते हैं। मैं केवल जानानी है या अज्ञात है, यह तुम किस तरह से जान पाओगे। मैं ब्रह्मज्ञानी है या ब्रह्मचारी यह भी तुम्हारी समझ से बाहर की बात है। ध्यान रखना इन विषयों को केवल जाना नहीं जाता तदनुसार जीवन बनाया जाता है। न ही केवल बुद्धि द्वारा जान लेने से रस ही आ पायेगा। कुण जानै महे अल्प अहारी, कुन जानै म्हे पुरुष क नारी। कुन जानै मंदिरें वाद विवाद, कुन जानै महे लुंड सुवादी। कौन जानने का दावा करता है और बता सकता है कि मैं कम खाना पकाने वाला है या निराशा है या अधिक भोजन करने वाला है .मैं पुरुष या नारी, यह भी आप कैसे हो सकता है जान हो। कौन जानता है कि मैं वाद विवाद है या लोभी है या सच मितभाषी या बकवादी है। कुण जानै म्हे जोगी के भोगी, कुन जानै महे आप संयोगी। कुण जानै महे भा भा भोगी, कुण जानै महे लील पती। कौन जानता है मैं योगी है या भोगी है। यह भी कौन जान सकता है कि मैं दुनिया से सम्बन्ध रखने वाला है या निर्लेप है। कौन जान सकता है कि मैं जोना चाहता है किना ही मुझे भोग्य वस्तु प्राप्त है या नहीं। यह भी सांसारिक सामान्य व्यक्ति नहीं जानता कि मैं इस संसार का हूँ। कुण जानै म्हे सूम क दाता, कुण जानै महे सती कुसती। आपही सुम और आप दाता, आप कुसुती आप सती। कौन जानता है कि मैं सूम कंजूस है या महान दानी है और यह भी जो जान सकता है कि मैं सती है या कुसती है। मैं क्या हूं इस विचार को छोड़ो और मैं जो कहता हूं इस पर विचार करोगे तो सभी समस्याएं स्वचालित रूप से सुलझ जायेंगी और अगर बिना कुछ धारण केवल बौद्धिक अभ्यास ही करते रहोगे तो कुछ भी नहीं समझ पाओगे। इसीलिए गुरुदेव कहते हैं कि मैं ही सभी कुछ है और सभी कुछ भी हो कुछ भी नहीं है। मैं ही सुम और मैं ही दाता है और मैं ही सती रूप में और कुसती भी मैं ही हूँ। जैसा कि देखता है में उसके लिए वैसा ही है। वह वो मुझे जो रूप में देखे, वह तो उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है। नव दाणूं निरवंश गुमाया, कैरव किया फती फती। मैनें समय समय पर अने में अवतार धारण कर धर्म की स्थापना की है और राक्षसों का विनाश किया है, में नौ राक्षस अति बलशाली थे। वे कुम्भकरण, रावण, कंस, केशी, चन्द्रू, मधु, कीचक हिरणक्ष और हिरण्यकश्यपू। इनके लिए विशेष अवतार धारण करना पड़े और कौरव समूह जो साथ में मिलाकर उपद्रव किया कर थे। उनको भी बिखेर दिया। मृत्यु के मुख में पंहुचा दिया। यह तो कृष्ण का राजनैतिक योद्धा का रूप था। राम रूप कर राक्षस हड़िया, बाण कै आगै बनचर जुड़िया। तद संकेतें राखी कमल पती, दया रूप महें आप बखनण। संहार रूप में आप हती हैं। राम रूप धारण कर मैनें कईनेक राक्षसों का विनाश किया और लंका में जाकर रावण को मारने के लिए बाण खींचा था। तब भी हनुमान सुग्रीव सहित वानर सेना मेरे आगे आकर सेना रूप में जुड़ गया था और उस भयंकर संग्राम में भी कमल फूल सदृश कोमल स्वाभाविक विभीषण और कमला सीता की उन राक्षसों से रक्षा की थी। वे मदमस्त हाथी सदृश उन कोमल कमल कलियों को कुचलना चाहते थे। मेरे साथ ही रूप प्रसिद्ध है, जब में दया करता है तो परम दयालु हो जाता है और राक्षसों से जब युद्ध करता है तो महाभुज हत्यारा हो जाता है। सोलै संहस नवरंग गोपी, भोलम भालम टोलम टालम। छोलम छालम, सहजैलेलो, महे कन्हड़ बालो आप जती। भोमासुर ने सोलहज़ार कन्याओं को जेल में डाल दिया था और यह प्रण कर रखा था जब जब बीस हजार हो जायेगी तब इनसे विवाह करुंगा। वे कन्याएं ही था, कंस-बालाएं भोली भाली था और सभी साथ में रहकर मेलमिलाप था था। अब उनके खेल-कूदने, शारीरिक, मानसिक विकास का समय था। किन्तु दुष्ट भोमासुर ने उन्हें कैदी जीवन जीने के लिए मजबूर किया था। मैनें भोमासुर को मार कर उन्हें सहज में ही मुक्त करवा दी था और उन्हें शरण भी दी। वे मुझे बताते हैं पति भगवान के रूप में स्वीकार कर रहा था। फिर भी में कृष्ण रूप में यति बाल ब्रह्मचारी ही था। इतनी पत्नियां भी हो रही बाल ब्रह्मचारी होना यह ईश्वरीय करामात है। छोलबीया मंदिरें तपीरेश्वर, छोलब किया फती फती। राख मतां तो पड़दे राख, ज्यूं दाहै पन वानास धार। इन के साथियों के साथ रम करने वाला मैं भी भगवान का कहना है कि यह भी है। वैसे गोपी ग्वाल्बाल्स का प्रिय मैं जब उनके साथ खेल खेला करता था तब मण्डली जुड़ी था किन्तु मैं जब वृक्षवन छोड़कर चला गया तो फिर उस मण्डली को छिल-भिन्न कर दिया। वह जोड़तोड़ करने वाला मैं भी अगर रक्षा करना चाहू तो भंयकर अग्नि में से एक सूखे पता भी रक्षा कर सकता है और अगर मैं न चाहू तो रक्षा के सभी उपाय निष्कर्ष हो जाते हैं।

 शब्द -68
 ओ 3 म्-वै कंवराई अनंत बधाई, वै कंवराई सुरग बधाई। यह कंवराई खेत, दुनिया भर रोलर कंवर किसो। भावार्थः- वास्तविक में कंवर तो प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठक आदि थे, जिनके पैदा होने से स्वर्ग और इहलोक में बधाई बांटी गया था। कंवर तो वही हो सकता है जो सत्य धर्म से प्रजा का पालन करे और यह जो आजकल के राजपुत्र आप को कंवर कहते हैं, ये तो धरती की मिट्टी में मिल जायें। इनके कर्तव्य की महिमा स्वर्ग तक नहीं पंहुचचगीगी। संतोषजनक दुनिया एक ही मार्ग से जा रहा है फिर फिर इस कंवर की भी तो दशा इच्छा फिर फिर कंवर कैसा। कण बिन कूकस रस बिन बाकस, बिन किरिया परिवार किसो। अरथूं गरथू साहण थाटू, धूवें का लहलोर जोो। जिन प्रकार से कण अन्न के बिना थोथा घास और रस के बिना थोथी खली का गन्ना रस कभी होता है। उसी प्रकार से शुद्ध सात्विक क्रियाकर्म के बिना परिवार भी रसहीन धर्महीन थोथा ही है। यह जो संसार में सड़क देने वाला धन दौलत, घोड़ा-हाथी, जानवरों का चठ समूह है यह भी धूवें के बादल के समान है। कब पवन का झोंका आये और कब बिखर जाये और उसी प्रकार से धन दौलत भी कब काल का झोंका आये और कब इन्हें उड़ा दे, कुछ भी नहीं पता है। सो शारंगधर जप रे प्राणी, जिहिं जपई हुवे धरम इसो। चलण चलंतै बास बसंतै, जीव कायायायाती। सास फुरंतै किवी न कमाई, तातैं ज्वार बिन डसी रे भाई। इसीलिए हे प्राणी! बस धनुषधारी दिव्य परमात्मा विष्णु का स्मरण भजन हर समय चलना, बैठना, उठाना, कार्य करना, जीवनयापन करना और जब तक तेरी श्वास चल रहा है, तब तक तू इस कार्य को कर सकता है। परमात्मा को शीश झुका हो सकता है। नमन कर हो सकता है। इस स्वस्थ शरीर में श्वासवासों का आवागमन चलते हुए अगर आप विष्णु को याद नहीं किया, जीवन का सुधार नहीं किया गया कालरुपी यमसास बिना किसी अस्त्र शस्त्र के ही काट डालेंगे, इस शरीर को तोड़कर जीवात्मा को ले जायें। तब तेरा कुछ भी नहीं चलेगा। विष्णु के स्मरण करने से ही धर्म की उत्पत्ति इच्छा, वही धर्म तेरा साथ और यमसास से छुटकारा मिलयेगा। सुर नर ब्रह्मा कोउ न गाई, माय न बाप न बहन न भाई। इंतजार न मिंट न लोक मनो, ज्वार ताना जमसास दहेला। लेखो लेसी एक सैनिकों। बिना किसी शुभ कर्म ने ही यह पंचभौतिक शरीर तो यकृत छूट जायेगा किन्तु इस शरीरस्थ जीवात्मा को यमसास सांकड़ों में जकड़कर ले जायें। वहां पर भयंकर घोर दुःखमय नरक में जब यह जीव को अर्जना दी जायेगी तो उस समय पर पर कोई नहीं छुड़ा होनेगा। न तो वहां पर देव, मानव, ब्रह्मामा तेरी गवाही देकर छुड़ा पाएं और न ही आप प्रियजन माता, पिता, बहन, भाई, सगा-सम्बन्धी मित्र या अन्य कोई खुद पराया ही छड़ा संभव था। उस समय तो केवल एक धर्म कर्मियों गवही के रूप में साथ जाता है, वही छुड़ा शायद है या शारंगधर भगवान विष्णु ही छुड़ा हो सकता है। पर पर तेरे से हिसाब किताब पूछे जायेगा। तब यह एक पुरुष यमराज के सामने ये तूं सम्पूर्ण चालाकियां भूल जायेगा। यहां से मिलता हैुलुलोक की तरह रिश्वत नहीं चलती और न ही बड़पशन, जाति, धन या अन्य किसी का चारा चल रहा है।

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