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शब्द -69 शब्द -69 ओ 3 म- जबरारे तैं जग डंडिलो, देह न जीती जांणो। माया जालै ले जम काले, लेना कोण समाणो। भावार्थः- एक परमपिता परमात्मा को छोड़कर उनसे अलग-अलग चराचर सृष्टि में कालरूपी मृत्यु ही सर्वोपरि है। इस महाकाल के गाल में यह जगत एक दिन अवश्य ही समाहित हो जायेगा। इस महाभुज काल ने कहा जगत को दंडित किया है कि न तो कभी यह स्थिर रहने और न ही कभी अमर होने। इस काल के रहते हुए देह को जीता नहीं जा सकता है। यह सांसारिक मायाजाल सभी कुछ काल यम के फंदे में अवश्य ही पड़ैगी, फिर फिर भी स्थिति रहते हैं कौन परमात्मा से आत्मा का मिलन करगागा। परमात्मा का साक्षात्कार बिना किसी अजर अमर कैसे हो सकता है अर्थात् जब तक माया, देह दृष्टि रहगी, निश्चित रूप से काल से नहीं बच सकता है। काचै पिंडे कोई बड़ाई, भोलै भूल अर्सोनो। म्हा देखता देव देवणु सुरनर खीना, बीच गया बेराणो। इस कच्चे शरीर की कौनसी बड़ा है। इसे स्थिर अजर अमर करने की चेहरे तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। अगर भूला हुआ कोई अज्ञात करता है तो वह उसकी नादानी ही होगा क्योंकि कालरुपी मृत्यु ने अब तक बड़ियां-बड़ियां भी नहीं छोड़ा है। मेरे देख देव देव, दानव और देवराज इंद्र, मानवेन्द्र समाप्त हो, वे लोग राज्य भोग की अभिलाषा में बीच में ही छोड़कर चले गए। वे राज्य करना चाहते थे लेकिन काल ने उन्हें नहीं छोड़ा। कुम्भकरण महारावण होता है, अबली जोध अयाणो। कोट लंका गढ़ विषमा होता, कांयदा बस गया रावण राणो। भी संसार में कभी कुम्भलन और महिरावण में पहले दर्जे के योद्धा हुआ कर रहे थे समय ही रावण जैसे राजा था, जिनके लंका जैसा चारों और से समुद्र से घिरा हुआ विचित्र अद्वितीय कोट (किला) था। उसी महान स्वर्ण महल में कुछ दिन तक रावण रहा था और भी रावण कुछ विशेषताएं थीं :- नौ ग्रह रावण आशीर्वाद बन्द, मूल बीह सुर नर शंक भयाणो। ले जम काले अति बुधवार, सीता काज लुभाणो। रावण ने नवग्रहों को महल के एक कोने में बांध रखा गया क्योंकि वह इन रवि, सोम, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु इनसे ही भय निवास था कि कभीबी तेरे ऊपर हावी हो सकता है। तो इनको तो बांधकर अपने वश में कर गया था। रावण मृत्यु से निडर हो चुका था। रावण तो किसी से भयभीत नहीं किन्तु रावण से देवता, मनुष्य, राक्षस सभी सदा ही भयभीत कर रहे थे। वह रावण चारों वेदों का ज्ञता महान पंडित था। वेदों का जानकार चल भी विद्या का सदपयोग जीवन में नहीं किया गया था। बुद्धि का अतिक्रमण कर रहे हैं, कई रानियां महल में भी हो सीता की प्रस्तुति के लिए लोभ हुआ। जो कारण से वह भी कुम्भकरण, महिरावण, मेघनाद और राक्षस सेना सहित यमकाल के हाथों चढ़ाया गया। अपनी रक्षा नहीं कर सका और नहीं सेना, लंका, ऐश्वर्य की रक्षा कर सका। भरमी बादी अति अहंकारी, करता है गरब गुमानो तेउ तो जम काले खीना, थार न लाधो थानो। और भी कई भ्रम में पड़े हुए, व्यर्थ के कुतर्क करने वाले, अत्यधिक अहंकारी ये लोग कभी विद्या, धन, शरीर, कुल का गर्व किया था, वे भी यम काल के सामने नहीं होने, काल से ग्रेट हो। आज उनका शरीर, घर, परिवार, देश पर पर स्थिर नहीं रहा अर्थात् जड़मूल से ही नष्ट हो। काचै पिंड अकाज अष्टर, किसो पिराणी मोनो। प्यान लाख मजीठ बिगुता, थोथा बाजर घाणो। इस नाशवान कच्चे शरीर को लेना कर्म कर्म करना तो यह बहुत बड़ा जोखिम मोल लेना है और इतना नुकसान उठाने भी अपने बड़ाई का बखान भी कैसा? हे प्राणी! तू गर्वदार भी क्षणिक काया को प्राप्त कर रहा है, यह भी तेरी नासमझ है। जिन प्रकार से साबुन, लाख, मजीठ का कोई विश्वास और स्थिरता धैर्यपना नहीं है उसी प्रकार से यह तेरा शरीर है। जैसे साबुन पानी के साथ घिसने से घुल पूजा है और मैल को काटती है। उसी प्रकार से शरीर भी काल के साथ व्यतीत हो रहा है और दूसरों की निंदा कर उनके मैल तो काटता है, किन्तु अपने ऊपर स्वयं चढ़ाता है। जो प्रकार लाख अग्नि के सामने पिघल की जाती है, ठंडी हो रही है कठोर हो जाता है कि यह प्रकार भी शरीर कभी कभी किसी दूसरे के दुःख को देखकर होता है हो जाता है और फिर वही थोड़ी देर में कठोरता धारण कर लेता है और समय आ रहा है अग्नि मंजिल लाख और शरीर के समान रूप से जल जाने हैं। लाख के ऊपर मजीथ रंग चढ़ाया जाता है वह भी समय पाकर उतर जाता है इसी प्रकार इस शरीर का सौन्दर्य भी टिकाऊ नहीं है। ये सभी 'बिगुता' है अर्थात् विश्वासहीन और अस्थिर है और यहां तक ​​कि कुछ प्रकार से बाजरी आदि धान निकालने का पीछा करते हुए भूसी (डूरा) ही थोथा अवशेष रह जाता है इसी प्रकार से इस शरीर से जीवात्मा निकल जाने पर भूसी की तरह ही यह शरीर हो जायेगा। विश्वं राचै गाजै बाजै, तामें कणू न दाणु। दुनिया के रंग सब कोई राचै, दीन रचै सो जानो। इस दुनिया के लोग तो गाने-बजाने नृत्य से अधिक खुशियाँ हैं। उसी में ही अपने मन को लगाकर देख-सुनते हैं किन्तु वह सार वस्तु नहीं है। वह तो अन्नविहीन भूसी की तरह ही है अन्दर से कण तत्व मिलिंग नहीं है और दुनिया के रंग में तो सभी कोई रचते हैं। वर्ल्डफीट के चक्कर में तो सभी फंस जाने है किन्तु उस दीनदयालु में कोई विरला ही रचता है। वास्तविक रचना तो वही है। मैं तो वह जीवन जीवन मानता है। लोही मास बिकारो सिंसी, मूर्ख फिरै अयाणो। मागर मणियां काच कथीरन राचो, कूड़ा दुनी डफाणो। जब लोहू और मांस में विकार उत्पन्न हो जायेगा अर्थात् रोग लग रहा है तब मूर्ख इधर-उधर भटकेगा। इससे अच्छा है कि पहले ही उपाय कर लिया जाय रोग रोग आये ही नहीं। इसके लिए खान-पान, व्यवहार पर नियंत्रण रखना परमावश्यक है। स्वयं तो मगरे में प्राप्त होने वाले मनिक और कांच कथीर में ही रच रहा है। इन्हें सत्य हीरे मोती मानता रह और विश्वक को भी भुलावे में डालकर पागल का अर्थ अर्थात् स्वयं तो कल्पित देवी देवताओं के चक्कर में पड़कर उन्हें वास्तविक परमात्मा मानता रहा और अन्य लोगों को भी झूठे सब्जबाग दिखाकर भ्रमित कर रहा है। यह तेरा झूठा व्यवहार था। चलन चलन्तै, जीव जीवन्तै, काया निवती, सास फुरंतै। कांयरे प्राणी विष्णु न जंप्यो, कीयो कंधै को तांणौ। इस झूठ-कपट की बासना का परित्याग शरीर शरीर चलते हुए, जीवन जीते हुए, काया स्वस्थ रहते हुए और श्वांस चलते हुए हे प्राणी! तैनें विष्णु का जप क्यों नहीं किया और संसार में रहकर तूने नम्रता का व्यवहार न कर रहा है शरीर का हीर। इस शरीर की ताकत में अच्छी तरह से लगानी थी किन्तु आपने से कमजोर लोगों को कष्ट दिया जाता है। इसलिए से भी ऊपर कोई शक्ति ताकतवर है, वह एक दिन आयेगी। तिहिं ऊपर आवैला ज्वार ताना दल, अंत किसो सहनाणो। ताकै शीष न ओढ़ण, पाय न पहरण, नैवा झूल झयाणो। ऐसे लोगों के ऊपर एक दिन जबरदस्त यम के दूतों का दल आयेगा। वह दल कैसा भयंकर होगा यह बतलाते हैं। न तो उनके सिर पर ओढ़ने के लिए पगड़ी और कुर्ता ही होगा और नहीं पांवों में पहनने के लिए जूते ही मिलते हैं और न ही अन्य केई शरीर ढ़कने के लिए भी वस्त्र ही होगा। धणक न बाण न टोप न अंगा, टाटर चुगल चयाणो। साल सुगू घृत सुबासो, पीवन न ठंडा पानी। और न तो उसके पास धनुष ही होगा और न ही बाण होगा और न ही शस्त्र से शरीर रक्षा के लिए टोपी ही होगा। वे अति भयंकर काले कलूटे, चुगलखोर, जीवों से शरीर से निकालकर इकट्ठा करने वाले होते हैं। ऐसे लोगों के हाथ में यह जीव पड़ो जायेगा और इस जीव को जंजीर में बांधकर बेरहमी से ले जायें, पर पर नरक में डाल दे। आगे आगे नरक में भी भयंकर दुःख झेलना पड़ेगा। जैसे-पर पर न तो सुन्दर शाल कम्बल आदि लेकिन मिलेंगे। इसीलिए सर्दी का दुःख झेलना पड़ेगा और न ही खाने के लिए घी मिथुनान भोजन ही प्राप्त होगा और न ही पीने के लिए ठंडा जल ही प्राप्त होगा। सेज न सोवण, पलंग न पोढ़ण, छात न मैड मनो। न वां दइया न वां मियाया, नागड़ दूत भयाणो। और न तो वहां पर सुखपूर्वक सोने के लिए फूलों की सुन्दर सेज ही है और न ही सामान्य पलंग है कि पर सोंया जावर और न ही कोई छतवाला भवन है, लेकिन नीचे नीचे रक्षा की जा रही है और न ही महल, मठ, मन्दिर है जहां पर भगवान मनाया जावर। न तो वहां दादी है और न ही वहां माता है जो दुःख में पुकारने पर आकर रक्षा कर। वहां तो नंगधड़ंग भयावने यम के दूत ही है जो पुकारने पर उपस्थित हो जायें और अधिक कष्ट में ही डालेंगे। काचा तोड़ नीकुचा भाषाए, अघट घटे मल मानो। धरती अरु असमान शिक्षक, जैनैं जीव न देही जानो। जब दुःखखत अवस्था में प्राणी पुकार रहना और भी कष्ट देने के लिए कच्चे शरीर का मांस निचोड़वे और कुवचन बोलकर कष्ट को द्विगुणित कर दे। पर पर नरक में यह अनहोनी घटनाएं रहती हैं, जोकी कभी कभी कल्पना भी नहीं होती है और चारों और मलमुत्र का साम्राज्य होगा जिससे पर्यावरण दुर्गन्धमय हो जायेगा। जब यह शरीर देह से बाहर निकलकर गमन, तब इस धरती से ऊपर आकाश की और उठेगा तो वह इन आंखो से नहीं नहीं। न तो ऊपर ले जाने से जीव को कोई सम्बन्धी रोकथामगा और न ही उसे देखकर हीगा क्योंकि इस पंचभौत देह में यह समथ्र्य नहीं है। आवत जावत दी दींंं, साचर जाय अयाणो। ज्वार ताना जमसास दहैला, मल बैसेंला मोनो। यह जीव न तो शरीर में आता है और न निकलता ही मौसम देता है। अगर सत्य धर्म को ले जाता है तब उसके आना-जाना सफल है नहीं तो व्यर्थ का ही कष्ट उठाता है। खाली हाथ जाने पर तो यमसास उन्हें अवश्यमेव कष्ट चूक ही और मलम नरक में डाल दे क्योंकि वह अपने प्रतिज्ञा कर उसको निभाया नहीं है। तातैं कलीयर कागा रोलो, सूना रह्या अयाणो। आयसां जोयस भानता गुणता, वार महारता पोथा थोथा। किताबें पढ़िए वेद पुराणण। जब यह जीव शरीर को छोड़कर चला जाता है या यमसास जबरदस्ती ले जाने हैं तो पीछे कौवों की भांति रोना चिल्लाना पुकारना ही रहती है किन्तु यह शरीर तो जीव बिना शून्य हो जाता है। घर बार भी थोड़ी देर के लिए शून्य सादूम पड़ता है किन्तु वह शून्यता कुछ दिन पश्चात समाप्त हो जाता है। इस मृत्यु और यमसेन्स से तो क्रिया और शुभकर्म विहीन योगी, संन्यासी, नाथ, ज्योतिषी, भजनीक, गुणी भी नहीं बच और न ही वार, मुहूर्त किताबें लेकिन रक्षा कर सकते हैं और आचारहीन किताबें पढ़ना पंडित भी नहीं बच सकता है। एक दिन सभी को काल से कवलित होना ही पड़ेगा। भूत परेती कां जपीजै, यह पाखंड परमाणु। कान्ह दिशावर जेकर चालो, रतन काया ले पार पहुंचो। रहसी आवाज जानो। भूत-प्रेरणा को क्यों जपते हो? वास्तविक में तो यह सच मार्ग नहीं है किन्तु पाखंड हम है। भूत-प्रेरणा की सेवा पूजा पाखंडी लोग लोग स्वार्थ सिद्धि के लिए करवाते हैं और स्वयं भी करते हैं। यदि आप लोग कृष्ण गीता के बताये हुए मार्ग पर चलोगे तो इस तुम्हारी रत्न सदृश अमूल्य सूक्ष्म काया को ले करके मुक्तिधाम को पंहुच जाओगे तथा तुम्हारा बार-बार जन्मना मरना रूप चक्र मिट जायेगा। तांह परैरे पार गिरांये, तत के निश्चय थाणो। सो अपरम्पर कांय न जंपो, तत खिन लहो इमानो। इस मृत्युलोक, नरक तथा स्वर्ग से भी आगे परमात्मका का सत्य सनातन अपरिवर्तनशील बैकुण्ठलोक है, वही पंहुच कर स्थिरता आती है। इससे पूर्व तो आवागमन का चक्र चलना ही रहता है। इसीलिए तक तक पंहुचने के लिए प्रयासशील रहना चाहिये। वह बैकुंडठधाम के विष्णु जिनकी महिमा अपरम्पर है यानी पार नहीं मिला जा सकता है, उनके ही स्मरण भजन क्यों नहीं करते। क्यों भूत-प्रेरणा के चक्कर में फंसे हो हो और उन परम दयालु विष्णु की प्राप्ति तो तत्काल ही हो जाता है। भूत-प्रेरणा की भांति किसी प्रकार की भोग्य वस्तु और अन्य किसी दिखाव की जरूरत नहीं है। बिना कुछ त्याग किए गए हम आप केवल याद कर सकते हैं से प्राप्त कर सकते हैं। भल मूल सिंचो रे प्राणी, ज्यूं तरवर मेलत डालुरु। जियाया मूल न सिंच्यो, तो जामैन मृत्यु बिगोवो। इसीलिए हे प्राणी! भूत-प्रेत रूपी डाल पटना मे ंपानी न देकर अच्छा जो मूलरूप भगवान विष्णु है किमें ही जल डालो। ऐसा करने से वह मूल ही डाल पता है, फूल फल रूप में विकसित होगा और अनन्तकाल तक मधुर फलदायी होगा और जो लोग इस प्रकार के मूल रूप विष्णु को स्मरण समर्पण भाव नहीं करते वे लोग बार बार जनम-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं, नाना प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। कभी भी दुःखों का अंत नहीं आता है। अहष्ण करणी थर न रहिबा, न बसे जम कालून। कोई कोई भल मूल सींचलो, भल तंत बूझीलो। जा जीवन की विधियां जानी। दिन-रात भाग दौड़ कर कमाया हुआ धन स्थिर नहीं रहेगा और न ही कोई भी वस्तु यमसास काल से बच ही संभव। किन्तु संसार के अधिकतर लोग तो धन कमाना, इकट्ठायण मार्ग पर ही चलते हैं और यहां पर संसार में कुछ-कुछ ऐसे विरले होते हैं जो अच्छे मूल स्वरूप भगवान विष्णु को अपने जीवन में अपनाते हैं और वे लोग किसी सज्जन संत पुरुष से भले तत्व प्राप्ति की बात पूछताछ भी हैं। जो ऐसा करते हैं वे लोग ही जीवन की विधि, जीने की कला वैसे पता वे लोग जीवन को सफल कर लेते हैं। यह जीवन सुखमे व्यतीत कर रहे हैं और परलोक भी सुखमे बना लेते हैं। जीव तड़ा कछु लाहो होसी, मूवा न आवत हाणी। जब तक जीवन रहेगा, तब तक उसे जीवन प्राप्ति का आनन्दरू लाभ मिलेगा और अगर कभी भी मृत्यु दे तो भी कोई हानि नहीं होगा क्योंकि वह जो प्रोजेक्ट करने के लिए कमाई करनी था वह कर चुका है। जीवन धारण करता रहे तब भी आनन्द और जीवन न रहे तब भी आनन्द हो जाता है, जीवन जीना ही मानव का कर्तव्य है। इसीलिए हे जमाती लोग! जानानी के लिए मृत्यु का भय ही समाप्त हो जाता है तो फिर यह इस पंचभौतिक शरीर रक्षा का उपाय नहीं सो सोचागा। उसके लिए जीवन मृत्यु बराबर है। तब तक उसे जीवन प्राप्ति का आनन्दरू लाभ मिलगा और अगर कभी भी मृत्यु दे तो भी कोई हानि नहीं होगा क्योंकि वह जो प्रोजेक्ट करने के लिए कमाई करनी था वह तो कर चुका है। जीवन धारण करता रहे तब भी आनन्द और जीवन न रहे तब भी आनन्द हो जाता है, जीवन जीना ही मानव का कर्तव्य है। इसीलिए हे जमाती लोग! जानानी के लिए मृत्यु का भय ही समाप्त हो जाता है तो फिर यह इस पंचभौतिक शरीर रक्षा का उपाय नहीं सो सोचागा। उसके लिए जीवन मृत्यु बराबर है। तब तक उसे जीवन प्राप्ति का आनन्दरू लाभ मिलगा और अगर कभी भी मृत्यु दे तो भी कोई हानि नहीं होगा क्योंकि वह जो प्रोजेक्ट करने के लिए कमाई करनी था वह तो कर चुका है। जीवन धारण करता रहे तब भी आनन्द और जीवन न रहे तब भी आनन्द हो जाता है, जीवन जीना ही मानव का कर्तव्य है। इसीलिए हे जमाती लोग! जानानी के लिए मृत्यु का भय ही समाप्त हो जाता है तो फिर यह इस पंचभौत शरीर रक्षा का उपाय नहीं, सोचेगा। उसके लिए जीवन मृत्यु बराबर है।

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