70-76

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शब्द -76 शब्द -76 ओ 3 म्-तन मन धोइये संजम हुइये, हरष न खोइये। भावार्थः- सर्वप्रथम प्रास्थल उठकर शौच, दातुन, स्नान के द्वारा शरीर की शुभकामनाएं। तत्पश्चात्तरी देश में स्थित मन की संध्या, वंदना आरती, जप, हवन के द्वारा शुद्ध संस्करण। एकमात्र नियम प्रामाणिक सम्पूर्ण हो जाने के बाद अन्य कार्य संस्करण। इस दैनिक कार्य को संयमपूर्वक करने से सदा शुभ कार्य ही होगा और संयम को नहीं अपनाएगा तो सभी पापकर्म ही रहेंगे और जगत में समन्वय कर रहे हो हो सकता है कि कष्ट भी आ जाये तो उन कष्टों से घबराये नहीं, उस समय दुःख का अनुभव नहीं करें। यह तुम्हारा स्वभाव आनन्द स्वरूप है, उसको नहीं जाना। सदा ही दुःख में भी प्रफुल्लित बना रहो। ज्यूउर ज्यूं वर्ल्डं करै खुवरी, त्युन त्यूम किरिया पूर्ण। उनके नियम, धर्म, संयम में जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति की अगर कोई निंदा करे, उसको बुरा-भला कहे या कटुवचन कहे तो भी नियम नियम जीवन की विधि को छोड़ नहीं। किन्तु जियोन-जियोन निन्दा करें, त्यो-तोंग स्वयं धार्मिक क्रिया पूर्णरूपण करें। अगर किसी के कटुवचन खुवरी से डरकर धार्मिक शुद्ध क्रिया छोड़ दी फिर फिर हार हो जायेगी। निन्दाकत्र्ता से भी पराजित नहीं होना, सदा उन पर विजय का प्रयास करना। मुग्धां सेती यूं टल चालो, ज्यूं खड़के पासि धनुरी। और मुग्ध (मूर्ख) लोग से तो इस प्रकार से दूर हटने चलो, उस प्रकार से धनेर पक्षी या हरिण थोड़ी सी पता की आवाज से भी डरकर भाग जाने हैं अर्थात्सू भीड़ मोहमाया में मस्त लोगों का कार्य तो दूसरों के कार्य में विघ्न डालना ही है, उन विवाहकर्ता से तो दूर हटकर चलना ही सबसे अच्छा है। वे लोग अपने करामात अवश्य ही आजमा लोग। इसीलिए विघ्न आने से पूर्व ही सचेत रहना चाहिये। अगर सचेत नहीं रहेंगे तो वही धनेर पक्षी और हरिण जैसे दशा हो। शब्द -75 शब्द -75 ओ 3 म-जोगी रे तु जुगत पिछंणी, काजी रे तूं कलम कुरन्णी। भावार्थः- योगी! तूं तो युक्ति की पहचान कर। '' युक्ताहार विहारस्य युक्त चेटस्य कर्म सु। युक्त स्वप्नबोधस्य योगो भवति दुःख हा .. (गीता) '' योगी के लिए युक्ति का भोजन, युक्ति का चलना, कर्मों में चेचक युक्ति बनाना और समय से जागना और सोना, ये सभी आचार विचार तुरन्त चलते रहें तभी दुःख मिटाने वाला योग सिद्ध होता है। (जराना जोगी) और हे काजी! तू कुराण के कलमों की पहचान कर। विचार विचारपूर्वक देख, क्या लिखा है। ईश्वरीय सद्पुरुष कभी भी जीवों की हत्या करने का आदेश नहीं दे सकता है फिर महोदया क्यों? वे भी तो ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न थे। गऊ बिनासो काहै तानी, राम रजा क्यूं दीम दानी। कान्ह चराई रनबे बियां, निरगुन रूप हमें पतियानी। आप लोग महद के शिष्य होकर फिर गौवों का विनाश कर हो तो किस बल पर। आप लोगों को विपुलिका में कौन सहारा देता है। अगर गौवों का विनाश ही करना होता है तो राम ने दया क्यों किया। कृषिओनेन्ग भारत भूमि वासियां ​​को गोपालन की शिक्षा क्यों दी और द्वापर में श्रीकृष्ण ने स्वयं गौवें क्यों चराई। घरबार का सुख आराम छोड़कर वृंदावन में क्यों गौवों के पीछे भटकते रहे। अगर गौवों को मारना हीर किया जाता है तो फिर इन महापुरुषों ने इनको जीवित रहने के लिए इतने कष्ट क्यों उठाए, हम अवतारी पुरुष यहां संसार में बार-बार यहां के लोग मार्ग के लिए आते हैं किन्तु हमारा वास्तविक रूप तो निर्गुण निराकार है । यह साकार रूप तो हमें धारण करना पड़ता है। थल शिर रह्या अभ्यर्थी बानी, धिये रे मुंडिया पर दानी। फीटा रे अण होता तानी, अलख लेखो लेसी जानी। वही निरंजन निराकार विष्णु यहां परभराथल पर दिव्य, अनुपम, अद्वितीय, वेद वाणी के रूप में विराजमान है। मेरे पास राम कृष्ण की भांति कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं है, मेरे पास तो यह वाणी ही शस्त्र है। इसीलिए हे मुंडिया! उस परोपकारी देवधि देव मूल रूप विष्णु का ध्यान रखना कर। आप लोग जबरदस्ती जीवों पर चलते हो, यह भी किसके आधार पर। तुम्हारा ऐसा कौन देवता बलशाली है जो यमसास से छुटकारा दे दे। इस जीवन में आप पूरी तरह से स्वतंत्रता है किन्तु अंत में आपसे हिसाब किताब पूछे जायेगा, तब तुम्हारा कुछ भी नहीं चलेगा। यहां पर आप किसी को सहायक बना सकते हैं किन्तु पर तुम्हारा सहायक कोई नहीं होगा। वह लेखा लेने वाला अलख सबके घट-घट की बात करने वाला महान ज्ञानी है, आप कुछ भी छुपा नहीं पाओगे। शब्द -74 शब्द -74 ओ 3 म्-कड़वा मीठा भोजन भखले, भखकर देखत खीरुं। भावार्थः- हे साधु पुरुष! आप लोगों ने परमपिता परमात्मा की प्रस्तुति के लिए और परोपकार के लिए घरबार छोड़कर भिक्षापात्र हाथ में ले लिया है। आपका उद्देश्य तो बहुत ही उच्चकोटि है और यह भी होना चाहिये। अब उदर दिखती के लिए भिक्षा द्वारा भी कड़वा, मीठा, रूखा-सूखा भोजन मिल जाये, उसे प्रेमपूर्वक परमात्मा के काम कर पाओ और भोजन कर उसे खीर के समान ही देखो। जिह्या से आगे जाने के बाद खीर और सूखी रोटी उन्हें बराबर है। इसीलिए आप रसना के स्वाद के लिए यह भूत प्रेतादिक तत्रं मंत्र का कार्य नहीं करना चाहिये। यदि आप लोग उस खीरे को खाता तो अपने बुद्धि और मन तामसिक हो जाता है, तुम्हारी साधना में विघ्न आ जाता है। इसीलिए मैनें ही हाथ बढ़ाकर गिरा दी थी। धरती आखरड़ी साथ सोवण, ओढ़ण ऊना चीरुं। सहजे सोवण पोह का जागण, जे मन रहिबा थारुं। यह सभी प्राणियों को धारण करने वाली धरती ही आपके लिए पलंग बिछौना है और योगी साधक को अकेले भ्रमण और रात में निवास नहीं करना चाहते हैं। जमात के बीच में रहना ऑपरयस्कर है। अकेला रहने पर कई प्रकार की विघन बाधायें आते हैं जो तो गोपीचन्द को उसकी माता ने कहा था कि हे बेटा! शय्या पर सोना, किले में बैठना, छतिस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन करना, सवारी से चलना, राजसी ठाठ-बाट से रहना। किन्तु गोपीचन्द ने कहा था कि माता में आज सनसनी ले रहा है। ये सब तो आज मुझे छोड़ना पड़ रहा है। आप क्या बोल रहे हैं, यह मेरी समझ से बाहर है। तब माता ने कहा था कि साधना में रत रहना, जब अच्छी नींद आवे तब सोना, आप इसके लिए भूमि ही कोमल शय्या ठहर और अकेले कभी नहीं रहना। अभी तुम युवा हो, आपका अन्दर विकार उत्पन्न हो सकता है और आप पंथ से विचलित कर सकते हैं। इसीलिए आप जैसे साधक समाज के बीच में ही रहना। तीसरी बात यह है कि जब आप अच्छे भूख लगे तबी भोजन करना, उस समय जो भी रूखा-सूखा भिक्तिन खाओगे आप के लिए पकवान ही होगा और चैथी बात यह है कि भ्रमण तो अवश्य ही करना किन्तु इतना नहीं नहीं शरीर थक जाये, साधना में विघ्न आ जाये। उत्पना ही घूमना जितना यह शरीर सहन कर और साधना भी चलती रहती है, यह सवारी जैसा ही होगा। जो भी वस्त्र छोटा-मोटा मिल जाये, उसे साफ सुथरा रखना और उसी में ही संतोष रखना, यही तुम्हारा राजसी रहन सहन होगा। ओढ़ने के लिए ऊन का वस्त्र वस्त्र योगी साधक के लिए ठीक रहता है और सां्याकाल में जब सहजता में निद्रा आवे तब सोना चाहती है और प्राचाकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच स्नानाई से परेशान होकर साधना में लगना आययस्कायरेदार प्रकार से अगर साधना में रत रहेगा तो तुम्हारा यह चंचल मन स्थिर होगा। मन की चंचलता को मिटाने के लिए ही साधना होता है और अगर वह भी मिट सकी तो फिर कैसी साधना कैसा योगी या साधु है। सुरग पहेली सांभल जिवड़ा, पोह उतरबा तीरुं। हे जीव! यह स्वर्ग एक पहेली के समान है अर्थात् जो प्रकार से लोग अनुपालन पूछते हैं हैं जबरदस्त उलझन होता है। जब तक उसके ज्ञापन नहीं मिला, तब तक यह सुलझ नहीं होगा। उसी प्रकार से यह स्वर्ग भी संयोजन से भरा हुआ है, वहां तक ​​पंहुचने के लिए औरकथित धार्मिक लोग द्वारा डाली गई कई प्रकार की संगमरमर को पार करना पड़ेगा। जितने लोग हैंनेने ही मार्ग हैं। अब साधक किस मार्ग को अपना और किसको छोड़े? इसलिए सावधान रहना अति आवश्यक है नहीं तो तेरे को कहीं पर फंसा दिया जायेगा। अगर तेरे को वहां तक ​​पंहुचना ही है तो इन गुणों को छोड़कर गुरु द्वारा बताए गए सद्पंथ को स्वीकार कर उस यात्रा यात्रा कर सकते हैं, निश्चित रूप से पंहुच जायेगा | शब्द -73 शब्द -73 ओ 3 म- हरी कंकहड़ी मंडप मेड़ी, जहां हमारे वासा। चार चक नव दीप थर हरै, जो आप परकासुं। भावार्थः- योगी शिला हिलाता है या शिला योगी को हिलाती है या बस केवल हिलती हुई वस्तुओं या योगी ही शिला ऊपर बैठा हुआ हिल रहा है। इन बातों को आप छोड़कर, यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद वह है। मुख्य बात तो यह है कि योगी जब आसन लगाकर बैठे तो उसके आसन जरा भी हिलना डुलना नहीं चाहिये। 'स्थिर सुखं आसनम्' स्थिर और सुखपूर्वक बैठना ही आसनियस भी आसन से योग सिद्धि होता है। गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि मेरा भी तो आसन यहां पर हरी-भरी कंकेहड़ी वृक्ष के नीचे स्थिर हैं इन सम्बराथल के आसपास ऊपर नीचे कंकेहड़ी वृक्षों की बहुतायत है। ये ही हमारे लिए मंडप है और महल मंदिर भी है। में इनके नीचे सुख से बहुत समय से निवास करना है, आगे भी करता है हम रहुंगा। और इस कंकेहड़ी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ में अगर उसकी ज्योतिर्मय प्रकाश का पूर्णतया विस्तार कर दूं अर्थात् सूर्य रूप स्वयं ज्योति का तेज पूर्णतया विकसित कर दूं तो यह सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् चार चक्र और नवद्वीपों के रूप में है, यह सब थर-थर कांपने लग शायद है इसमें भूचाल आ जाये, यह धरती प्रक्षेपित हो जाये तो इसके ऊपर रहने वाले जीव जन्तु भी व्याकुल हो जायें। गुणियां इंदारा सुगाना चेला, मनें सुगाना का दासूं। सुगाना प्रतीक सैं सुरगे जासिये, नुगरा रह्या निरासूं। जो सद्गुणों से विभूषित सज्जन पुरुष है वो तो हमारे अच्छे ज्ञान में गिने जाते हैं। ऐसे त्याग के हम आधीन रहते हैं, जैसे वो हमें करना पड़ता है। सच्चा भक्त सदा ही भगवान को वश में आया है। जो सुगुणा शिष्य हो गया है, वह तो निश्चित रूप से स्वर्ग में जायेगा और नुगुरा गुरुहीन मनोदशा व्यक्ति इस जीवन को पाकर भी निराश ही रह जायेगा। अंत में निराशा ही हाथ लगगी, इस जीवन के दाव को खो बैठेगा। इसीलिए गुरु धारण करना चाहिये। जाका थान सुहाया घर बैकंडठे, जाय संदेशो लायो। अमरीज ठमियां इमृत भोजन, मनसां पलंग सेज निहाल बिछा। जिन लोगों ने आज से पूर्व सु संकर बैकंडठवास को प्राप्त किया है वे पर पर पहनाव दिव्य नित्य स्थायी घर में निवास कर रहे हैं, पर पर अमृतम मीठा स्वादिष्ट मिचिकर पदार्थ स्वयं ही सुलभ है और इच्छाएं पलंग सुकोमल शैय्या सोने के लिए बिछाई हुई सुलभ है और मनसा भोग प्राप्त होने से सभी तृप्त और शांत भाव से विराजमान है। गुरुदेवजी कहते हैं कि मैनें यह सब कुछ अपने आंखों से देखा है और उनके संदेश मिल गया है। देखा का संदेश दा देकर आप भी वही पर पंहुचाना है। वे जो लोग ध्रुव, प्रहलाद आदि पंहुच हैं, वे आपके ही सम्बन्धी थे, इसीलिए तुम्हारा मामला कर रहे हैं। यही उनके संदेश में मैनें आप तक पंथुचा दिया है। इसीलिए आप लोगों का परम और वैसे भी होना चाहिए। इन छोटी-मोटी सिद्धांतों या सिद्धों के चक्कर में अपने गन्तव्य स्थान को भूल जाना नहीं है। जागन्ते जोवो जोत न खोवो, छल जासी संसार। भणी न भणबा, सुनी न सुणबा, कही न कहबा, खड़ी न खड़बा। इसीलिए हे संसार के लोगो! जागृत रहो, निद्रा में सोना नहीं अर्थात् जागृत अवस्था में सदा सचेत रहो। व्यर्थ में ही आलस्य के वशीभूत होकर समय को सांसारिक विषयों में ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए। इस जीवन के पीछे भी कोई और जीवन है, उसका भी ख्याल रखना। इसके अलावा लोक और परलोक में ही बिगाड़ नहीं बैठना। सावधान! परमात्मा की दिव्य ज्योति कण-कण में बिखरी हुई है उसका दर्शन अवश्य ही करना। यदि आप लोग भगवान का दर्शन चाहते हैं तो वह सच्चाईर संसार की चित्र-विचित्र में चेतन रूप से बजामान सता के रूप में सम्भव है। केवल इस संसार का ही चिंतन मनन दर्शन करते रहोगे तो तुम्हारे साथ बहुत बड़ा धोखा हो जायेगा। छल के लिए जाओगे। हे प्राणी! आपने जप करने योग्य योग्य विष्णु परमात्मा का जप स्मरण किया नहीं, किन्तु, भूत, प्रेत, भैरं आदि का जप कर रहा है और योग्य योग्य सत्संग, भजन कीर्तन, नीति विषयक वार्ता नहीं सुनी, वैसे ही जंगली गीत, गाली, कटुवचन सुनता रहा और कहने योग्य भगवद् चर्चा, कथा, महापुरुषों दिव्य आख्यान, सत्यवाणी आदि तो कहीं नहीं, किन्तु व्यर्थ की आल-बाल झूठ कपट निंदा भरे वचन में ही बोलता रहा। आप कर योग्य योग्य कर्तव्य जो मानव धर्म के अनुकूल हो, वह तो नहीं किया सदा पापकर्म, चोरी, जारी आदि दुर्व्योरसन में पड़कर समय को व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया। रे! भल कृष्णणी, ताके करण न घातो हेलो। कलीकाल जुग बरते जैलो, ताते नहीं सुरां सो मेलो। हे अच्छा किसान! तू खेती तो बड़ा ही मेहनत से करता है किन्तु अध्यात्म साधना रूपी खेती में ढ़ील दे रखी है। इसीलिए जो व्यक्ति सुनने योग्य वार्ता सुन नहीं सकता, कहने योग्य योग्य वार्ता कह नहीं सकता, जपने योग्य देव को जप नहीं कर सकता और कर दिया जा सकता है योग्य कर्म कर सकते हैं, उसके कानों में यह ज्ञान की ध्वनि आवाज कैसे होली जाये है है। ऐसे लोगों के सामने की ओर से चिल्लाकर कहो, प्यार प्रेम से धीरे से कहो, कोई भी फर्क पड़ने वाला नहीं है। हे प्राणी! यह कलयुग का समय अतिशीघ्र ही व्यतीत हो रहा है। वैसे भी बहुत कम प्राप्त हुआ था कि भी बीतता जा रहा है। अगर यह अनुभव बीत गया तो फिर तेतीस करोड़ देवताओं से मिलन नहीं होगेगा। क्योंकि इस जीवन के पश्चात पुन मानव शरीर मिलना दुर्लभ है और यदि मिल भी गया तो यह दिव्य अवसर मिलना अति दुर्लभ है। सतगुरु उमत कुल में जन्म, धन, बल, शरीर से स्वस्थ होना अति कठिन है। ये सभी बिना किसी मानव जीवन जीवन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा | शब्द -72 शब्द -72 ओ 3 म- वेद कुराण कुमाया जालु, भूला जीव कुजीव कुजाणी। बसंदर नहीं नखुरुं, धर्म पुरुष सिर जीवैरूरु। भावार्थः- हिंदुओं का पिता जीनथ वेद है और मुसलमानों का कुरण। हिन्दू वेद पर गर्व कर हैं और मुसलमान कुरण पर। वेद या कुराण ये बहुत ही बड़े हैं, हाथ अने की तरह प्रकार की बातें कही पोस्ट है। बड़े ही परिश्रम से यह एक शब्द का जाल गुंथा गया है। इस जाल में फंस तो जाने हैं किन्तु निकलना नहीं पता। तत्काल भाषा में अति दुरुपयोग और परस्पर विरोधी वार्ता होना से पूछताछ करय में पड़ोस है। इसीलिए वेद मंत्रों की मीमांसा आदि कई ग्रंथों में व्याख्या की गई है और भूले हुए प्राणी और कुजीव बुरा प्रकृतिएं तो स्वयं ही तरीके से उन मंत्रों का अर्थ निकाल लेते हैं। उससे यज्ञ जैसे काम कार्य भी हिंसा का बोलबाला पहले हो गया था। एक ही मंत्र के कई अर्थ हो सकता है। इस सुविधा का लाभ कुवैत अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए कर रहे हैं। अग्नि देवता कभी भी हीरे नहीं हो सकता है। अग्नि तो अग्नि ही है और हीरा तो हीरा है। अग्नि में दार्शत्व जलाना प्रकाश देना शक्ति होती है। यह में नहीं है। फिर भी अपनी जगह पर अग्नि का वह सूक्ष्म रूप हीरा भी अपना विशेष महत्व रखता है अर्थात् वेद तो अग्नि सदृश है और शब्दवाणी हीरे के सदृश है। ये सब तो अपने स्वयं के स्थान में महत्वपूर्ण है। हीरे के नंगे से अलंकार बनता है और प्रकाश सौन्दर्य भी सर्वगाड़ सुलभ है किन्तु अग्निरूप वेद से तो हाथ जलने का सदा ही डर बना रहता है। इसीलिए अग्नि को देखकर हीरे को नहीं करना चाहिये। जो धार्मिक पुरुष होगा, वही इन हीरे की परख को जाननेगा और इस शब्दवाणी रूपी हीरे को ग्रहण कर जीवन को पूर्ण कर आनन्द प्राप्त प्राप्त होगा। कली का माया जाल फिंटाकर प्राणी, गुरु की कलम कुरानण पिछणी। दीन गुमान करैलो थली, ज्यूं कण घातै घुन हानी। इसीलिए हे प्राणी! कलयुग की माया का जाल बहुत ही फैल चुका है और फैलता ही जा रहा है। इसमें फंसना नहीं। इस माया के नए आविष्कारों को देखकर आश्चर्य चकित नहीं होना। उसी जाल को ही सत्य मानकर उसमें फंस नहीं जाता है। सद्गुरु के बताते हुए शब्द ज्ञान को ही वेद, कुराण मानकर उन्हें समझकर तद्मलार जीवन को बनाना। वह दिन रात रूप से व्यतीत होने वाला काल तेरे अहंकार को एक दिन तोड़ दिया। अतिथि विद्या, धन, बल, परिवार, मजबब आदि का अहंकार हो चुका है किन्तु ध्यान रखना जो प्रकार से धान, बड़ा, बाजरी, गेहूं आदि में घुर (कीट) विशेष जब अन्दर घुस जाता है तो द दाने के अन्दर के कण भाग खा जाता है तो वह दाना थोथा हो जाता है। उसी प्रकार तेरे अन्दर भी मजबब रूपी काल बैठा हुआ है। तेरे अहंकार को दिन का काटा जा रहा है, एक दिन पूर्णतया समाप्त कर दिया तो इहलोक छोड़कर जाना होगा। इससे तो वह अच्छा है कि तू अपनी इच्छा से ही अभिमान को छोड़कर निरभिमानी हो जा। सरल मार्ग को अपनाकर सहज जीवन जीना प्रारम्भ कर, उस महाकाल से तू युद्ध में तो जीत नहीं करगा। जो वह अच्छा है कि उससे समझौता कर ले। साच सिदक शैतान चुकावों, ज्यून्द चुकाव पत्णी। मैं नर पूर्ण सर विणजांरारा, लेसी जांके हृदय लोयण। अन्धा रह्या इंवाणी। जिन प्रकार से प्यास को जल मिटा दिया जाता है अर्थात् जल के अभाव में तो भयंकर प्यास लगी था और जल के मिल जाने पर परेशान हो जाता है, उसी प्रकार से ही सत्य, निशछलता से शैतानता को समाप्त किया जा सकता है। सत्य, दया, प्रेम के अभाव में तो शैतानी ने आकर डेरा जमाया था सतीदी धर्म आ जाने से प्यास की तरह ही चली जायेगी। गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि मैं तो पूर्ण पुरुष हूं और इन सांसारिक कार्यकलापों के छोटे-मोटे व्यापार को छोड़कर अध्यात्म ज्ञान रूपी हीरों का व्यापार करता है। इन हीरे मोइस के ग्राहक सभी नहीं, तभी तो हीरे जवाहरात की दुकानों पर भीड़ नहीं है अर्थात् यहां पर वही सुजीव आयेगा जिसका हृदय रूपी नैत्र खुल हैं। इन बाहरी चर्म चक्षुओं से तो देख रहा है किन्तु ह्यदय की आंख अब तक खुली नहीं है, वे न तो मेरे पास में ही आवेगे और न ही कुछ प्राप्त कर सकेंगे। ऐसे लोग मानव जीवन धारण भी पशु पशु ही रहो जायें। निरख लोह नर निरहारी, जिन चोखंड भीतर खेल पसारी। जंपो रे जिण जंपै लाभै, रतन काया ए कहांनी। जो परमपिता परमात्मा ने स्वर्ग, पाताल, सेतुलोक और बैकुंडठलोक इन चारों ही लोकों में यह सृष्टिरूपी खेल रचाया है। '' एकोहं बहुसान प्रजायेय '' स्वयं एक से बहुत सारे हैं और यह खेल रचा है और जो नर रूप में निरहारी तुम्हारी उपस्थिति है किको ध्यानपूर्वक देखो, यादें और पहचान अपने जीवन में अपनाओ अर्थात् परमात्मा मय जीवन को बनाओ। हृदय में भगवान को दिव्य नर रूप ज्योति धारण कर शुभकर्म करो। उस परमात्मा की प्राप्ति का साधन भी कई बतलाये हैं किन्तु सबसे सरल और सुगम उपाय तो उनके एक मन से परमात्मा के नाम का जप है, से से ही प्राप्ति संभव है। अन्य पशु आदिक शरीरों से यह मानव काया गुणवत्ता है इसीलिए इसे रत्न भी कहा जाता है। इस रत्न सदृश उत्तम काया से ही विष्णु जप द्वारा वहां तक ​​पंहुचा जा सकता है। कांही मारुब का तारू, किरिया बिहूंना पर हथ सार। शील दशु उबारू ऊनहै, एकल एह कहाणी। यहां पर आकर तो में किसी को मारता है अर्थात् जिनके अजर काम क्रोधी बलवान शत्रु है, उन शत्रुओं को मारने वाला है तो जन जन अहंकार मोह माया नफरत करते हैं, लेकिन हो जाता है और अन्य पुरुष जो सज्जन संस्कारिक प्रकृति होते हैं पार उतार देने वाले क्योंकि ऐसे लोग तो तैयार किए गए थे, वे तो केवल सहारे की आवश्यकता थी और जो क्रिया रहित तामसिक प्रकृति वाले जन शुद्ध क्रिया रहित सन्दर्भ कृतिदार जनों के हाथों में चढ़ाया थे, उनको में बैरिस पंथ में लाया और उनका दृष्टता छुड़ाकरके शीलरतित। उन्हें सुशील बना कर भवसागर में डूबते हुए को उबार मिला। इसीलए इस कलुग की तो कहानी है। मानवों के दुर्गुणों को संशोधित शुद्ध सात्विक शील आचरणमय बनाना। केवल ज्ञानी थल शिर आयो, परगट खेल पसारी। कोड़ तेतिसों पोह रचावण हारी, ज्यूं छक आयी सब। वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा कैवल्य ज्ञानानी इस सम्बन्ध पर है। पूर्व पूर्व तो अवतरारी पुरुषों ने खेल तो रचा था किन्तु वह तो अब अप्रत्यक्ष हो चुका है और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा विष्णु मश भी अप्रगट रूप से ही सृष्टि की रचना रूपी खेल खेल रहे हैं। गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि मैनें यह इस थल पर दिव्य खेल रचा है, यह प्रगति है यानी प्रत्यक्ष है। और यह खेल भी निरुदेश्य नहीं है। तेतिस करोड़ की संख्या पूर्ण करने के लिए इस मार्ग का निर्माण मैनें किया जाता है क्योंकि पूर्व पूर्व सत, त्रेता, द्वापरेश्वर मार्ग पर चलकर इक्कीस करोड़ तो पंहुच पक्ष हैं और इस समय अवशिष्ट बारह करोड़ को पार पंहुचाना है। जिन प्रकार से गौवा वन में पूजा है घास चरकर बैरिस आते समय तालाब या कूवें पर पानी पीकर तृप्त हो जाता है और घर में आकर आनन्दपूर्वक बैठते हैं। उसी प्रकार से इन जीवों को भी संसार में कर्मफल प्राप्ति के लिए प्रेषित थे। यहां पर कुछ दिन रहकर अपने कर्मों को भोग कर रहा था जब उसके घर परमात्मा के पास पंहुचते हैं तो वहां आनन्दपूर्वक बैठते हैं। असली तृप्ति का अनुभव वह समय होता है और अगर सदा के लिए वन में ही रहना स्वीकार कर दिया फिर फिर तृप्ति का अनुभव तो नहीं हो सकता। घास अगर मिल भी जायेगी तो पानी नहीं मिलागा। बिना जल के तृप्ति तो नहीं हो सकता अर्थात् अपने सच्चे घर परमात्मा की ज्योति से ज्योति का मिलान बिना बिना सच्चा सुख तो मिल मिल सकता है। शब्द -71 शब्द -71 ओ 3 म्- धवणा धूजे, पत्तन पूजे, बेफरमाई खुदाई। गुरु चेले के पड़े लागे, देखो लोग अन्यायी। भावार्थः- इस समाज में कुछ तो संन्यासी नाथ आदियां ने वस्त्र और मकान को त्याग दिया और सर्दी निवारण के लिए धौणी धूकाते हैं। पर पर पूर्णतया सर्दी से नहीं बचाना, इसीलिए कांपते हैं ठंडी से परेशान हो जाते हैं। फिर भी अपना व्यर्थ का हाथ नहीं छोड़ना। अग्नि जलाकर बैठने को ही धर्म मान बैठे हैं। उन लोगों को बहुत भारी कष्ट उठाते हैं तो निराकार किया तत्परूप परमात्मा का स्मरण करना चाहती थी किन्तु ये लोग पत्थर की पूजा करते हैं। यह उनका मनोबल मार्ग है। ईश्वरीय मार्ग से विमुख होकर पतन की और हम जा रहे हैं। ईश्वर ने धूणी धूकाना और पत्थरों की पूजा करना कब था? हे संसार के लोग! इस घटित घटना को देखो और विचार करो। पत्थर की मूर्ति बनाने वाला वह मूर्ति का गुरु होता है क्योंकि निर्माता सदा ही बड़ा होता है, निर्मित वस्तु छोटी होती है। उस निर्मित वस्तु का उत्पादक वही कर्ता होता है और उस पत्थर को मूर्ति का आकार देकर वही गुरु रूपी कारीगर शिष्यरूपी मूर्ति के अनुभव में गिरता है, हाथ जोड़ता है गिड़गड़ाता है यह कैसा न्याय और बुद्धिमानी है। इन अन्यायी लोगों ने सच्चे परमात्मा की खोज तत्वान्वेषण मार्ग में बाधा पंहुचाई है। जनसाधारण को भ्रमित कर अधोगति में पहंचाचा है। काठी कण जो रूपा रेहण, छाड़ महीना छिपाई। नीचा पड़ो तानें धोकै, धीरा रे हरि आई। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए लोग अने नाम प्रकार से मूर्तियों का निर्माण करते हैं। इन मुख्य रूप से लकड़ी, स्वर्ण, चांदी और मिट्टी ही है और इनसे मूर्ति निर्माण कर कपड़े पहनाकर कई प्रकार से श्रृंगार भी कर देते हैं। पूर्णतया मानव का आकार देकर फिर नीचे गिरकर बार-बार धोक लगाते हैं, सलाम कर रहे हैं, उससे धन दौलत की याचना भी कर रहे हैं। पर पर कुछ भी प्राप्त नहीं होता है तब आप अपने और अन्य जनों को धैर्य धारण करने के उपदेश देने के लिए कहते हैं कि हरि आय, खुद कामना पूर्ण। यही क्रम निरंतर चल रहा है। ब्राह्मण नाउं लादण रूड़ा, बूता नाउं कूता। बै आप डाउनलोड ने पोह बताए, बैर जगाव सूता। जो मानव ब्रह्म को पता है और तदुनसार ही संसार में क्रियाकलाप करता है अर्थात् वेद शास्त्र की विद्या में प्रवीण होकर तद्मित जीवनयापन करता है। वह व्यक्ति परमादरनीय है वही ब्राह्मण है। किन्तु जो महामूर्ख या आचार, विचार, क्रिया, ब्राह्मण कर्म से गिर गया है, वह है ब्राह्मण के घर जन्म भी क्यों नहीं ले लेवें, वह समाज को हमेशा धोखा देता है। ऐसे ब्राह्मण से तो गधा ही अच्छा है जो समाज की सेवा करता है, कभी पालना नहीं करता, कभी धोखा नहीं देता, अपने पीठ पर भार उठाकर दूसरों को राहत पंहुचाता है। भूले-भटके भी अपनी आवाज से सचेत कर मार्ग का निर्देश भी देता है। और पत्थर की बुत से तो कुता ही अच्छा है जो चोरों से स्वयं की रक्षा कर रहा है घर के मालिक भी यहां तक ​​कि दुःख से भी सावधान कर देना है दिशा भ्रमितजन को भोंक कर गांव होने का आभास कर देना है। किन्तु मूर्ति न तो चोरों से स्वयं की ही रक्षा कर सकती है और न ही मालिक पुजारी को ही सचेत कर सकता है और न ही दिग्भ्रितजनों को मार्ग ही निर्देश कर सकते हैं। कुता सजीव प्राणी होने से ईश्वरीय सता उसमें प्रतिफलित होता है किन्तु मूर्ति में तो सजीता न होने से सता का दर्शन असम्भव है। इसीलिए बुत से तो कुता अच्छा है। भूत परेती जाखा खंणी, यह पाखंड परवाणो। बल बल कूकस कांय दलीजै, जाम कणू न दणुरु। भूत, प्रेत, यक्ष, पिशाच आदि योनियां वायु तत्व युवा होता है। ये कभी कहीं किसी स्थान में अपना प्रभाव दिखाती है किन्तु वह क्रियाकलाप केवल पाखंड केवल होता है। पर पर सच्चाई नहीं होता क्योंकि मानव और उन योनियों का कोई संबंध नहीं है। न तो वे मानव का कुछ भला ही कर सकते हैं और न ही कुछ कुछ बिगाड़ हो सकता है जो मानव शुद्ध मानवता के धर्म से गिर जायेगा, आसरी भाव को प्राप्त हो जायेगा तो उन्माद पर अपना पाखंड दिखाती है तो वह मानव डरकर उनकी पूजा सेवा प्रारम्भ कर है। भूत-प्रेरणा की सेवा पूजा तो बार-बार अन्न निकले कूकस को फिर दलना है। उसके अन्दर से अन्न प्रस्तुति की कोशिश करना ही है किन्तु पर दाना और कंण कहां प्राप्त होता है। उसी प्रकार से भूत-प्रेरणा में भी वह कणतत्व रूप आनन्द कहां मिलता है। परिश्रम व्यर्थ ही करना है। तेल लियाओ खल चैपे जोगी, खलपण सुन्घी बिकाणो। ये भूत-प्रेत पहले कभी मानव ही थे, उनके अकाल मृत्यु हो गया, कई प्रकार की वासनाएं रहना, जीवन खाली रह गया था। मृत्यु के बाद में जीव अध्याति में गिर गया। इनकी तो ऐसा ही दशा हो गया, जो प्रकार से तिलहन से तेल निकाला जाता है तो पीछे खली जानवरों के काम की रहती है सूंघी बिकती है। उस प्रकार से जीवात्मा शरीर से निकल गया, मानव शरीर तो चला गया अब उनके भूत-प्रेत का शरीर खली के समान ही व्यर्थ का है। उनकी पूजा से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। वह स्वयं शक्तिहीन योनी तुम्हारा भला कैसे कर सकता है। कालर बीज न बीज पिराणी, थलसिर न कर निवाणो। नीर गए छीलर कांय सोधो, रीता रह्या इवाणो। हे प्राणी! इस प्रकार से तू भूत, प्रेत, मूर्ति आदि की पूजा और पखंडी के जाल मंजे पड़कर अपने अमृत जीवन को व्यर्थ में ही समाप्त मत कर। तेरी भी वही दशा विल, जैसे दशा कालर उसर भूमि में बीज बोने वाले व्यक्ति और बालू के टिबे ऊपर तालाब खोदने वाले की घटना है। न तो ऊसर खेती में बीज ही जमकर फल होता है और न ही बालू के धोने ऊपर पानी ही ठहरता है। मेहनत तो भूत प्रेत भी करता है और मेहनत वह बीज बोने और तालाब खोदने वाला भी करता है। इन का परिश्रम व्यर्थ ही सिद्ध होता है। पानी बरष्ता है तब बालाब में भी पानी नहीं ठहरता, पर पर छोटे बालू का मय छीलर में क्या देखना हो और कालर में फल की भी आशा क्यों कर रही हो? साथ ही खाली रहो जायें। इसीलिए भूत-प्रेरणा सेवा में धन, बल, समय लगाना व्यर्थ ही है। भंटा ते फिरता फिरता ते भिवता, मड़े मसाने तड़े तड़गे। पड़े पंखाने ह्तोतो सिद्धि न काई, निज पोह खोज पिराणी। जो भूल में पड़े हुए हैं, वे लोग ही भटकते हैं और जो लोग मेड़ी, शमशान, तालाब और तालाबों की पाल पर या पड़े हुए पत्थरों के पास भटकते हैं, वे ही अधिक भ्रमित हो रहा है किन्त पर पर सिद्धि कहां है। अगर लोग सिद्धि ही प्राप्त करनी है तो इन पत्थरों, पाल, मेड़ी को छोड़कर सद्मार्ग की खोज कर। वह सद्मार्ग ही स्थान गन्तव्य स्थान तक पंहुचा हो सकता है। बिना मार्ग प्राप्त अब तक कोई नहीं पंहुच सका है। जे नर दावो छोड्यो मेर चुकाई, राह तेतिसों की जानी .. जो जिज्ञासु मानव ने किसी भी कम कमजोर प्राणी पर अपना अधिकार जटा छोड़ा है। गरीब, धनवान, छोटे-बड़े, स्वयं, भेदभाव से परेशान हो चुका है यानी नम्रशीलता को धारणा कर चुका है और यह मेरा है, मैं इसका हूं, इस प्रकार का मेरापन मिटा दिया गया है। उस मानव ने ही मानों तेतिस करोड़ प्राणियों के मार्ग को जान लिया है। उसी मार्ग पर चल रहा है। एक दिन अवश्यमेव उन बाकुंडठवासी तेतिस करोड़ प्राणियों से मेल अवश्य ही उत्तर, यहां भी इक्कीस राजसी तोर मार्ग पकड़ने पंहुचे हैं और बारह को अब पंहुचना शेष है। वे सभी मिलकर तेतिस पूरे हो जायें | शब्द -70 शब्द -70 ओ 3 महे-हक हलालु, हक साच कृष्णों, सु सामान्य अहलोयो न जाई। भावार्थः-राजा के लिए तो विशेष रूप से हक की कमाई पर ही संतोष कर लेना सत्य के नजदीक पंहुचना है। राजा प्रजा से कर रूप में जो धन लेता है किमें राजा का हक नहीं होता, वह तो प्रजा के खून पसीने की कमाई है। उसे तो प्रजा के हितार्थ में ही लगाना राजा का कर्तव्य है। अनधिकार रूप से प्रजा का धन और अन्य किसी भी राजा पर अधिकार करने की चेत बेहक है। इसीलिए अपने मर्यादा सीमा में रहते हुए परिश्रम द्वारा जो धन प्राप्त होता है वही सच्चा धन है जो सत्य मार्ग से प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार से परिश्रम द्वारा किया गया सुकार्य व्यर्थ में नहीं जाता है, उसका फल अवश्यमेव प्राप्त होगा। देर हो सकता है किन्तु अंधेरा नहीं है। भल बाहीलो भल बीजिलो, पवन बाड़ बुलाई। जीव कै काजै खड़ो जूटती, तामें ले रखवालो रे भाई। सुफल की प्रस्तुति के लिए सर्वप्रथम खेती की जुताई, गुच्छा, सफाई की जाती है। तत्पश्चात् उस समय आने पर अच्छा बीज बोए जाने जाते हैं और खेती की रक्षार्थ कांटों की बाड़ चारों तरफ लगाई जाती है। उसी प्रकार से इस मानव जीवन रूपी खेती में भी अगर अच्छा फल चाहता है तो इस शरीर रूपी क्षेत्र में सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्ति की योग्यता धारण करनी इच्छा और योग्यता के लिए स्नान, शौच, सदुववाराारा सद्गुणों को धारण करना होगा। जब शरीर शुद्ध हो जायेगा तब उसमें सद्ज्ञान रूपी बीज बोया जायेगा और बीज अंकुरित हो जाने के बाद ज्ञान के फल आनन्द की रक्षार्थ पवित्रता रूपी बाड़ चारों तरफ लगानी जो जो सांसारिक मोह माया-तूफानों से उड़ न हो। हे प्राणी! इस प्रकार से इस जीव की भलाई के लिए यह साधना रूपी खेती कर और खेती के रक्षार्थ एक रखवाला भी रखना होगा। वह तो तेरा स्वयं का मन ही हो सकता है क्योंकि वही खेती का कर्ता भी है। उसे ही रखवाले रखना होगा क्योंकि आगे कई विपत्तियां आने वाली है। दैतानी शैतानी फिरैला, तेरी मत मोरा चर जाई। मनमन मनवा जीवन विश्लेषण कर, मनहेललो ठांई। तुम्हारी खेती जब पकने की तैयारी में होता है तो वह समय होता है कभी भी दिन या रात में मौका पाकर स्वतंत्र विचरण करने वाले दैत्यय भैंस (झोटा) और शैतान स्वरूप सांड आकर तुम्हारी खेती को तहस नहस कर सकते हैं। उसी प्रकार से ही इस तरह के साधनारूपी खेती भी समाज में स्वच्छन्द विचरण करने वाले ये मदमस्त राक्षस और शैतान बुराई वैज्ञानिकों कभी भी आपका ज्ञान ज्ञान मार्ग को नष्ट भ्रष्ट कर सकते हैं और सावधान न रहने से तो तुम्हारी बुद्धि को मयूर रूपी अहंकार नष्ट कर देगा। इसीलिए मनरुपी रखवाले को स्थिर सावधान रहना होगा। क्योंकि यह रखवाला स्वयं ही बहुत चंचल है, यह इंसान स्थिर यानी एकगर होकर खेती की रक्षा करनी चाहिए। यह साधना जीव की भलाई के लिए ही करनी चाहती है और सच्ची खेती भी उसे ही कहना चाहती है जीव की भलाई हो। जीव के काजै खड़ो जूटती, वाय दवाई न जाई। न तहां हिरानी न तहां हिरण, न चीनहों हरि आई। अपने जीव की भलाई के लिए ही साधना रूपी खेती करों वाला यह सदा के लिए ही जन्मदिन के चक्कर से छूट संभव किन्तु साधना और खेती कर समय कुछ बातों का ध्यान भी रखना परमावती है जैसे सर्वप्रथम तो खेती को उड़ाने या दबाने वाले हवा के तूफान जो किती को मूल से या तो मिट्टी के नीचे दबाए जाते हैं या उड़ाकर ले जाते हैं। उस प्रकार से साधना में भी आने वाले कई प्रकार के लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि तूफान या तो उसे साधना से परेशान कर देने या उसकी साधना को दबा दिया जाता है। इनसे सावधान रहना परमावश्यक है। और अन्य और कई प्रमुख बाधायें खेती करने वाले किसान को आती है, वहां कभी हरिण हरिण और हरियावड़ी गायें भैंसेसे आदि जो जबरदस्ती से खेत में घुस जाता है और फसल को खा जाता है। किसान की तरह ही साधक होता है वह भी अगर उसकी साधना की रक्षा नहीं कर सकतेगा तो हरिन रूपी मन और हरिनीस रूपी मन की वासनाएं जो अति चंचल है वे साधना को नष्ट कर सकता है। वैसे तो मन स्वयं रखवाला है किन्तु बाड़ स्वयं खेत को खाने लग रहा है और भी समस्या पैदा हो जाता है। उस प्रकार से साधक को भी सूक्ष्म वासनाओं से समस्या अधिक पैदा हो रही है और बुद्धि का नियंत्रण मन ऊपर होना चाहती थी किन्तु बुद्धि सात्विक, शुद्ध, कुशाग्र नहीं होने से भी भी जबरदस्ती करने वाला गाय की तरह हो जाता है। उसे सद्-असद का विवेक नहीं रहता तो वह भी विचारशू होकर साधना में बाधा ही उत्पन्न करेंगी। न तहां मोरा न तहां मोरी, न ऊंचे चर जाई। और भी अने नौकर बाधाओं आती है। अल खेती को खाने वाले मयूर-मयूरी और चूहे भी रहते हैं, ये भी खेती को उजाड़ देते हैं, किसान को इनसे भी सावधान रहना पड़ता है तभी खेती तैयार होता है। ठीक उसी प्रकार से साधक को भी मयूर रूपी अहंकार और अहंकार वृति गर्व, मोरापन रूपी मयूरनियों से सावधान रहना होगा। ये साधक द्वारा की गई सम्पूर्ण साधना पर कभी भी पानी फेरड़े हैं और दूसरी सबसे अधिक शत्रु तो चूहे होते हैं। उनसे तो बचना अति कठिन होता है किन्तु उनसे बचना भी परमावती है। उसी प्रकार से साधक को भी अचेत रूपी चूहे कभी भी मन्दती कर सकते हैं। इसीलिए सदा सचेत रहना चाहती है कि चूसहे खेत में बिल तो नहीं बना रहे हैं अर्थात् में कहीं अचेत अवस्था में पड़ा हुआ समय को व्यर्थ में नहीं गवन रहा है। इस प्रकार से सदा जाग्रत रहकर खेती और साधना की रक्षा की जाति है। कोई गुरु कर जानानी तोड़त मोहा, तेरो मन रखवालो रे भाई। जो आराध्यो राव युधिष्ठिर, सो आराधो रे भाई। हे मल्हुखान और संतलराव! अगर इन विघ्न बाधाओं से बचना चाहते हो तो किसी ज्ञानी गुरु की शरण में जाओ, वह तुम्हारा मोहन बन्धन को तोड़ दिया। जब तक आप लोग मोहक बन्धन में फंसे रहोगे तब तक तुम्हारी साधना कभी सफल नहीं हो सकता है। जब गुरु के आशीर्वाद से मोह का बंधन जायेगा, तब तुम्हारी खेती को चरने वाला यह चंचल मन भी उसी खेती का रक्षक हो जायेगा। जिन प्रकार से धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य कर दिया भी धर्म और सत्य का पालन रूपी साधना की, वैसी हम आप लोग करते हैं। आप भी राज्य कर रहे हैं धर्मराज की पदवी को प्राप्त कर सकते हैं और आप इसके लिए प्रयासशील भी रहना चाहेंगे। वैसी हम आप लोग करते हैं। आप भी राज्य कर रहे हैं धर्मराज की पदवी को प्राप्त कर सकते हैं और आप इसके लिए प्रयासशील भी रहना चाहेंगे। वैसी हम आप लोग करते हैं। आप भी राज्य कर रहे हैं धर्मराज की पदवी को प्राप्त कर सकते हैं और आप इसके लिए प्रयासशील भी रहना चाहेंगे।

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