77-82
शब्द-82
ओ३म्- अलख अलख तूं अलख न लखणा, तेरा अनन्त इलोलूं।
कौण सी तेरी करणी पूजै, कोण सै तिंहि रूप सतूलूं।
भावार्थः- हे साधु पुरुष! इन सांसारिक लोगों के कटु कषाय वाक्यों को श्रवण करके अपने स्वरूप को भूलकर क्रोध न करो तथा इन वाक्यों के केवल कहने सुनने से ही कुछ नहीं हो सकता। जैसे तू नित्यप्रति अलख अलख की ध्वनि तो करता है, अलख का नाम लेकर जोर से आवाज करता है किन्तु उससे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। केवल लड्डू का नाम लेने से लड्डू के मीठेपन स्वाद का आनन्द नहीं आ सकेगा। उसी प्रकार से अलख को जाने बिना, अलखमय हुए बिना केवल शब्दमात्र से कोई रस नहीं मिल सकेगा। यदि तुझे परमात्म रस आनन्द का अनुभव करना है तो अलख परमात्मा का साक्षात्कार करेगा, उस समय तेरे आनन्द की अनन्त हिलोरें उठेगी। तुझे अमृत रस में ओतप्रोत कर देगी।
उस घड़ी की बराबरी कोई भी करणी नहीं कर पायेगी। ऐसा और कोई संसार में कत्र्तव्य नहीं है जो उस आनन्दमय बेला की बराबरी कर सके तथा न ही कोई ऐसा दिव्य रूप ही होगा जो उस दशा की समता कर सके अर्थात् उस समय जब तुम्हारा अलख से मिलन साक्षात्कार हो जायेगा, तब तुम्हारे सदृश अन्य किसी का जीवन नहीं हो सकेगा। तुम्हारी समता कोई भी सांसारिक मोहमाया में ग्रसित मानव नहीं कर सकेगा।
शब्द-81
ओ३म्- भल पाखण्डी पाखण्ड मंडा, पहला पाप पराछत खंडा।
भावार्थः- हे साधु! उस स्त्री ने जो कुछ भी कहा है वह ठीक ही कहा है। मैं बहुत बड़ा पाखण्डी हूँ, मैनें यहां पर पाखण्ड रचकर रखा है। जो कोई भी मेरे पास में आ जाता है, मैं उनके संचित तथा क्रियमाण सभी पापों का खण्डन कर देता हूँ। पापों की बड़ी सेना को पराजित करना मेरा कर्तव्य है। यही बात जम्भसार में महमंद खां तथा लूणकरण को सदुपदेश प्रसंग में सातवें प्रकरण में बतायी है-
चै.- कहे जम्भ जानें मोहे भेवों, ताका इतना धन ठग लेऊं।
काम क्रोध मद लोभ कुकर्मा, आत्म प्रचै बिन सब धरमा।
ईरषा अन्याव रु निंद्या, बांधे पाप पोट रज बिंद्या।
इह धन हिन्दू मुसलां प्यारो, लूट देय कर शब्द नगारो।
तातै मोसै मिलन कोई, जो मिल है सो निरधन होई।
जा पांखडी के नादे वेदे शीले शब्दे बाजत पौण।
ता पाखंडी ने चीन्हत कौण, जाकी सहजै चूके आवागौण।
जिस पाखण्डी ने यह पाप पराजित करने वाला पाखण्ड रच रखा है। उसके अपने कुछ निजी विशेष धर्म है। जैसे- नाद ध्वनि का ज्ञाता होना, वेदों के सार रूप तथ्य का ज्ञाता तथा वक्ता होना, शीलव्रती होना तथा शब्द शास्त्र तथा अनहद नाद ओम् का
साधक होना, ये सभी लक्षण बहुतायत से इस पाखंडी में ही विद्यमान है। इन्हीं सद्गुणों की ही हवा यहां पर चल रही है अर्थात् मैनें ऐसा पवित्र वातावरण यहां पर निर्मित किया है। जो भी इस पवित्र वातावरण में आयेगा तो वह पवित्र हुए बिना नहीं रह सकेगा।
उस पाखंडी को कोई पहचान ले तो उसके जन्म-मरण का चक्र सहज ही में छूट जायेगा। इसीलिए हे साधु तुमने इस रहस्यमय पाखंडी को पहचाना नहीं था, इसीलिए उदास होकर पछतावा कर रहा था, अब ऐसा नहीं होगा।
ओ३म्- अलख अलख तूं अलख न लखणा, तेरा अनन्त इलोलूं।
कौण सी तेरी करणी पूजै, कोण सै तिंहि रूप सतूलूं।
भावार्थः- हे साधु पुरुष! इन सांसारिक लोगों के कटु कषाय वाक्यों को श्रवण करके अपने स्वरूप को भूलकर क्रोध न करो तथा इन वाक्यों के केवल कहने सुनने से ही कुछ नहीं हो सकता। जैसे तू नित्यप्रति अलख अलख की ध्वनि तो करता है, अलख का नाम लेकर जोर से आवाज करता है किन्तु उससे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। केवल लड्डू का नाम लेने से लड्डू के मीठेपन स्वाद का आनन्द नहीं आ सकेगा। उसी प्रकार से अलख को जाने बिना, अलखमय हुए बिना केवल शब्दमात्र से कोई रस नहीं मिल सकेगा। यदि तुझे परमात्म रस आनन्द का अनुभव करना है तो अलख परमात्मा का साक्षात्कार करेगा, उस समय तेरे आनन्द की अनन्त हिलोरें उठेगी। तुझे अमृत रस में ओतप्रोत कर देगी।
उस घड़ी की बराबरी कोई भी करणी नहीं कर पायेगी। ऐसा और कोई संसार में कत्र्तव्य नहीं है जो उस आनन्दमय बेला की बराबरी कर सके तथा न ही कोई ऐसा दिव्य रूप ही होगा जो उस दशा की समता कर सके अर्थात् उस समय जब तुम्हारा अलख से मिलन साक्षात्कार हो जायेगा, तब तुम्हारे सदृश अन्य किसी का जीवन नहीं हो सकेगा। तुम्हारी समता कोई भी सांसारिक मोहमाया में ग्रसित मानव नहीं कर सकेगा।
शब्द-81
ओ३म्- भल पाखण्डी पाखण्ड मंडा, पहला पाप पराछत खंडा।
भावार्थः- हे साधु! उस स्त्री ने जो कुछ भी कहा है वह ठीक ही कहा है। मैं बहुत बड़ा पाखण्डी हूँ, मैनें यहां पर पाखण्ड रचकर रखा है। जो कोई भी मेरे पास में आ जाता है, मैं उनके संचित तथा क्रियमाण सभी पापों का खण्डन कर देता हूँ। पापों की बड़ी सेना को पराजित करना मेरा कर्तव्य है। यही बात जम्भसार में महमंद खां तथा लूणकरण को सदुपदेश प्रसंग में सातवें प्रकरण में बतायी है-
चै.- कहे जम्भ जानें मोहे भेवों, ताका इतना धन ठग लेऊं।
काम क्रोध मद लोभ कुकर्मा, आत्म प्रचै बिन सब धरमा।
ईरषा अन्याव रु निंद्या, बांधे पाप पोट रज बिंद्या।
इह धन हिन्दू मुसलां प्यारो, लूट देय कर शब्द नगारो।
तातै मोसै मिलन कोई, जो मिल है सो निरधन होई।
जा पांखडी के नादे वेदे शीले शब्दे बाजत पौण।
ता पाखंडी ने चीन्हत कौण, जाकी सहजै चूके आवागौण।
जिस पाखण्डी ने यह पाप पराजित करने वाला पाखण्ड रच रखा है। उसके अपने कुछ निजी विशेष धर्म है। जैसे- नाद ध्वनि का ज्ञाता होना, वेदों के सार रूप तथ्य का ज्ञाता तथा वक्ता होना, शीलव्रती होना तथा शब्द शास्त्र तथा अनहद नाद ओम् का
साधक होना, ये सभी लक्षण बहुतायत से इस पाखंडी में ही विद्यमान है। इन्हीं सद्गुणों की ही हवा यहां पर चल रही है अर्थात् मैनें ऐसा पवित्र वातावरण यहां पर निर्मित किया है। जो भी इस पवित्र वातावरण में आयेगा तो वह पवित्र हुए बिना नहीं रह सकेगा।
उस पाखंडी को कोई पहचान ले तो उसके जन्म-मरण का चक्र सहज ही में छूट जायेगा। इसीलिए हे साधु तुमने इस रहस्यमय पाखंडी को पहचाना नहीं था, इसीलिए उदास होकर पछतावा कर रहा था, अब ऐसा नहीं होगा।
शब्द-80
ओ३म्- जे म्हां सूता रैण बिहावै, तो बरतै बिम्बा बारूं।
भावार्थः- हे जिज्ञासु! यदि में आपके इस कोमल बिछौने ऊपर सोकर रात्रि व्यतीत कर दूं अर्थात् युग व्यतीत कर दूं तथा अच्छी गहरी नींद ले लूं तो जानते हो क्या हो सकता है? मेरा शयन करना तथा जागृत रहने का अभिप्राय यह है कि प्रलय तथा सृष्टि का सृजन होना है। इसीलिये मेरे शयन करने पर सम्प्ूर्ण सृष्टि अपने-अपने कारण रूप में लय हो जायेगी। तो उस समय यह प्रतिबिम्ब रूप जगत की स्थिति नहीं रहेगी। किन्तु बिम्ब रूप से एक परमात्मा की ज्योति ही रहेगी। उस ज्योति के प्रकाश से ही सर्वलोक प्रकाशित होंगे तथा मेरे ब्रह्म स्वरूप स्थिति में जब स्थिर हो जाऊंगा (यही मेरा शयन है) अब आगे संसार के प्रमुख-प्रमुख तत्वों की क्या दशा हो सकती है, यह बतला रहे हैं।
चन्द भी लाजै सूर भी लाजै, लाजै धर गैणारूं।
पवणा पांणी ये पण लाजै, लाजै बणी अठारा भारूं।
सूर्य, चन्द्रमा, धरती, आकाश, पवन,जल तथा अठारह भार वनस्पति ये सभी लज्जित हो जायेंगे। इन सभी के अन्दर ज्योति तथा ऊर्जा शक्ति तो परमात्मा की ही दी हुई है। वह परमात्मा जब अपनी शक्ति वापिस समेट लेगा तो फिर इनकी स्थिति जैसा आप लोग इस समय देख रहे हैं, नहीं रहेगी। ये अपना अस्तित्व मिटा कर अपने कारण रूप में लय हो जायेंगे तथा इसके बिना तो सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। तथा च-
सप्त पताल फुणींदा लाजै, लाजै सागर खारूं।
जम्बु दीप का लोइया लाजै, लाजै धवली धारूं।
सिध अरु साधक मुनिजन लाजै, लाजै सिरजन हारूं।
ये सातों पाताल, शेषनाग, खार समुद्र इनकी भी स्थिति यथावत् नहीं रह सकती तथा जम्बूद्वीप के लोग जो यहां पर जीवन कल्याण की आशा लगाए बैठे हैं, वे भी लज्जित हो जायेंगे और हिमालय से निकलकर अजस्त्र धारा प्रवाह वाली पवित्र नदी गंगा भी लज्जित हो जायेगी और यदि गंगा का प्रवाह रूक गया तो फिर इस जम्बूद्वीप के जन अपनी इच्छापूर्ति नहीं कर सकेंगे तथा इस संसार में इस समय सिद्ध साधक तथा मुनिजन जो साधना में रत है, अपना उद्धार करने की लालसा से दिन रात परिश्रम से तत्वान्वेषण कर रहे हैं वे भी लज्जित हो जायेंगे। उनका भी कार्य अधूरा ही रह जायेगा। उन्हें फिर से जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा तथा सबसे बड़ी हानि तो यह होगी कि सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु तथा संहारक रूप शिव भी लज्जित हो जायेंगे। एक ही परमात्मा की शक्ति रूप ये तीनों अपने अपने कार्य में संलग्न है तथा जब अकस्मात् सृष्टि का प्रलय हो जायेगा तो ये त्रिदेव अपने परिश्रम का फल विपरीत देखकर लज्जित हो जायेंगे। पुनः सृष्टि रचना कार्य को इतने मनोयोग से कर नहीं पायेगे अर्थात् पुनः इतनी सुन्दर, सौम्य व्यवस्थित सृष्टि की रचना, पालन, संहार नहीं हो सकेगा। इसीलिए मेरे शयन का फल तो यही होगा। अतः हे जिज्ञासु! तू इन बातों को छोड़कर यदि अपना भला चाहता है तो मैं जैसा कहता हूँं वैसा कर।
सत र लाख असी पर जंपा, भले न आवै तारूं।
सर्वप्रथम तो सत्यवादी बनकर सत्य सनातन पूर्ण ब्रह्म परमात्म में ही रहने की कोशिश करो अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि में ओत प्रोत परमात्मा को ही देखकर उसमें अपने को समाहित करो। यदि इस प्रकार से ज्ञान की धारा प्रवाहित नहीं हो पाती है तो लाख की तरह चित वृति सुरति को तदाकार बना ले अर्थात् जैसे लाख को अग्नि से तपाकर फिर उसे चूड़ी कंगन आदि बनाने के लिए सांचे में ढ़ाली जाती हे। जब वह लाख सांचे में पड़ी हुई ठंडी हो जाती है तो वह तदाकार रूप धारण कर लेती है फिर कभी भी उसका तदाकार निवृत नहीं होता। ठीक उसी प्रकार से यह तुम्हारी जो चितवृति है यह सदा ही बाह्य विषयों में तदाकार होती रहती है किन्तु टिकाऊ नहीं है। इसी वृति को ही प्रेमभाव रूपी अग्नि से पिघला करके परमात्मा रूपी संाचे में ढ़ाल दो, कुछ समय तक तो वहीं पर वृति को एकाग्र रहने दो वह सदा-सदा के लिए वहीं पर ही स्थिर हो जायेगी अर्थात् सदा ही परमात्मा मय चित वृति या सुरति हो जायेगी। ‘शब्द गुरु सुरति चेला’ अर्थात् यह ओम शब्द ही गुरु है और सुरति ही चेला है। इसी प्रकार का ध्यान रूपी जप यदि तुम्हारा चलता रहेगा तो मैं तुझे तार दूंगा। इस संसार के जन्म-मरण दुःख के चक्र से छूट जायेगा।
चन्द भी लाजै सूर भी लाजै, लाजै धर गैणारूं।
पवणा पांणी ये पण लाजै, लाजै बणी अठारा भारूं।
सूर्य, चन्द्रमा, धरती, आकाश, पवन,जल तथा अठारह भार वनस्पति ये सभी लज्जित हो जायेंगे। इन सभी के अन्दर ज्योति तथा ऊर्जा शक्ति तो परमात्मा की ही दी हुई है। वह परमात्मा जब अपनी शक्ति वापिस समेट लेगा तो फिर इनकी स्थिति जैसा आप लोग इस समय देख रहे हैं, नहीं रहेगी। ये अपना अस्तित्व मिटा कर अपने कारण रूप में लय हो जायेंगे तथा इसके बिना तो सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। तथा च-
सप्त पताल फुणींदा लाजै, लाजै सागर खारूं।
जम्बु दीप का लोइया लाजै, लाजै धवली धारूं।
सिध अरु साधक मुनिजन लाजै, लाजै सिरजन हारूं।
ये सातों पाताल, शेषनाग, खार समुद्र इनकी भी स्थिति यथावत् नहीं रह सकती तथा जम्बूद्वीप के लोग जो यहां पर जीवन कल्याण की आशा लगाए बैठे हैं, वे भी लज्जित हो जायेंगे और हिमालय से निकलकर अजस्त्र धारा प्रवाह वाली पवित्र नदी गंगा भी लज्जित हो जायेगी और यदि गंगा का प्रवाह रूक गया तो फिर इस जम्बूद्वीप के जन अपनी इच्छापूर्ति नहीं कर सकेंगे तथा इस संसार में इस समय सिद्ध साधक तथा मुनिजन जो साधना में रत है, अपना उद्धार करने की लालसा से दिन रात परिश्रम से तत्वान्वेषण कर रहे हैं वे भी लज्जित हो जायेंगे। उनका भी कार्य अधूरा ही रह जायेगा। उन्हें फिर से जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा तथा सबसे बड़ी हानि तो यह होगी कि सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु तथा संहारक रूप शिव भी लज्जित हो जायेंगे। एक ही परमात्मा की शक्ति रूप ये तीनों अपने अपने कार्य में संलग्न है तथा जब अकस्मात् सृष्टि का प्रलय हो जायेगा तो ये त्रिदेव अपने परिश्रम का फल विपरीत देखकर लज्जित हो जायेंगे। पुनः सृष्टि रचना कार्य को इतने मनोयोग से कर नहीं पायेगे अर्थात् पुनः इतनी सुन्दर, सौम्य व्यवस्थित सृष्टि की रचना, पालन, संहार नहीं हो सकेगा। इसीलिए मेरे शयन का फल तो यही होगा। अतः हे जिज्ञासु! तू इन बातों को छोड़कर यदि अपना भला चाहता है तो मैं जैसा कहता हूँं वैसा कर।
सत र लाख असी पर जंपा, भले न आवै तारूं।
सर्वप्रथम तो सत्यवादी बनकर सत्य सनातन पूर्ण ब्रह्म परमात्म में ही रहने की कोशिश करो अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि में ओत प्रोत परमात्मा को ही देखकर उसमें अपने को समाहित करो। यदि इस प्रकार से ज्ञान की धारा प्रवाहित नहीं हो पाती है तो लाख की तरह चित वृति सुरति को तदाकार बना ले अर्थात् जैसे लाख को अग्नि से तपाकर फिर उसे चूड़ी कंगन आदि बनाने के लिए सांचे में ढ़ाली जाती हे। जब वह लाख सांचे में पड़ी हुई ठंडी हो जाती है तो वह तदाकार रूप धारण कर लेती है फिर कभी भी उसका तदाकार निवृत नहीं होता। ठीक उसी प्रकार से यह तुम्हारी जो चितवृति है यह सदा ही बाह्य विषयों में तदाकार होती रहती है किन्तु टिकाऊ नहीं है। इसी वृति को ही प्रेमभाव रूपी अग्नि से पिघला करके परमात्मा रूपी संाचे में ढ़ाल दो, कुछ समय तक तो वहीं पर वृति को एकाग्र रहने दो वह सदा-सदा के लिए वहीं पर ही स्थिर हो जायेगी अर्थात् सदा ही परमात्मा मय चित वृति या सुरति हो जायेगी। ‘शब्द गुरु सुरति चेला’ अर्थात् यह ओम शब्द ही गुरु है और सुरति ही चेला है। इसी प्रकार का ध्यान रूपी जप यदि तुम्हारा चलता रहेगा तो मैं तुझे तार दूंगा। इस संसार के जन्म-मरण दुःख के चक्र से छूट जायेगा।
शब्द-79
ओ३म्- बारा पोल नवै दरसाजी, राय अथरगढ़ थीरूं।
इस गढ़ कोई थीर न रहिबा, निश्चै चाल गया गुरु पीरूं।
भावार्थः- बाहर यह महाकाश ही पोल है। इस पोल आकाश में ही सभी शरीर धारी प्राणी निवास करते हैं तथा ये ही नौ दरवाजे जीव के लिए बाह्य आकाश तथा उसमें स्थित जीवों को देखने के साधन है तथा मृत्यु समय में भी यह जीवन इन नौ में से किसी भी दरवाजे से निकलकर बाह्य इस आकाश यानी पोल में ही समाहित होता है। यह अथिर यानी अस्थिर रहने वाला शरीर रूपी गढ़ का यह जीव ही राजा है। यह गढ़ जब जर्जरित या खंडित हो जाता है तो इस जीव के रहने लायक यह भवन नहीं रहता तो इसको छोड़कर चला जाता है। अपने कर्मानुसार या तो नवीन गढ़ बनाता है या फिर मुक्ति को प्राप्त करता है।
इसीलिये हे योगी! यदि आप लोग ज्यादा आयु अजमर अमर होना चाहते हो तो यह तुम्हारी भूल ही होगी क्योंकि इस शरीर रूपी गढ़ में अब तक न तो कोई स्थिर रह सका और नही रह सकेगा। सामान्य जन की तो बात ही क्या है, बड़े़-बड़े गुरु-पीर भी निश्चित हो चले गये। अब तुम्हारी यह स्थिर रहने की कामना तो नादानी ही है
ओ३म्- बारा पोल नवै दरसाजी, राय अथरगढ़ थीरूं।
इस गढ़ कोई थीर न रहिबा, निश्चै चाल गया गुरु पीरूं।
भावार्थः- बाहर यह महाकाश ही पोल है। इस पोल आकाश में ही सभी शरीर धारी प्राणी निवास करते हैं तथा ये ही नौ दरवाजे जीव के लिए बाह्य आकाश तथा उसमें स्थित जीवों को देखने के साधन है तथा मृत्यु समय में भी यह जीवन इन नौ में से किसी भी दरवाजे से निकलकर बाह्य इस आकाश यानी पोल में ही समाहित होता है। यह अथिर यानी अस्थिर रहने वाला शरीर रूपी गढ़ का यह जीव ही राजा है। यह गढ़ जब जर्जरित या खंडित हो जाता है तो इस जीव के रहने लायक यह भवन नहीं रहता तो इसको छोड़कर चला जाता है। अपने कर्मानुसार या तो नवीन गढ़ बनाता है या फिर मुक्ति को प्राप्त करता है।
इसीलिये हे योगी! यदि आप लोग ज्यादा आयु अजमर अमर होना चाहते हो तो यह तुम्हारी भूल ही होगी क्योंकि इस शरीर रूपी गढ़ में अब तक न तो कोई स्थिर रह सका और नही रह सकेगा। सामान्य जन की तो बात ही क्या है, बड़े़-बड़े गुरु-पीर भी निश्चित हो चले गये। अब तुम्हारी यह स्थिर रहने की कामना तो नादानी ही है
शब्द-78
ओ३म्- नवै पोल नवै दरवाजा, अहूंठ कोड़रूं राय जड़ी।
कांय रे सींचो बनमाली, इंहि बाड़ी तो भेल पड़सी।
भावार्थः- इस पंचभौतिक शरीर में बाह्य दिखने वाली दो आंखे, दो कान, दो नासिकायें तथा एक मुख, ये सात तो ऊपर के दरवाजे हैं तथा दो नीचे के पायु तथा उपस्थ कुल मिलाकर नौ बड़े दरवाजे हैं तथा इन्हीं दरवाजों के अन्दर प्रवेश करने पर नौ ही उनकी पोल यानी थोथापन है अर्थात् इन इन्द्रियों के अन्दर इनका आकाश है। जिस द्वार से बाह्य भोग वस्तु अन्दर स्थित जीव तक पंहुचती है तथा उन वस्तुओं का सार रूप शरीर के अर्थ में आ जाने पर अवशिष्ट मल रूप से बाहर भी निकलता है तथा उन नौ बड़े दरवाजों के अतिरिक्त साढ़े तीन करोड़ रोमावली भी शरीर में जड़ी हुई हे। ये भी छोटे-मोटे झरोखों के समान हवा, जल आदि ग्रहण एवं त्याग का कार्य करती है।
इतने छिद्रों से युक्त यह शरीर एक घने जंगल की तरह ही है जिसमें झाड़ी घास फूस असंख्य उग आते हैं। उसी प्रकार इस शरीर में भी रोमावली उगी हुई है तथा यह शरीरस्थ जीवात्मा ही इस वन का माली है जो इस शरीर द्वारा इन भोगों को भोगता है। यह जीव प्रसन्न होता है तो इस शरीर को भी भोग्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिससे यह भी हष्ट पुष्ट होता है। संसार के लोग तो यही करते रहते हैं। किन्तु गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि हे योगी! तू दिन रात इसी बनमाली जीव को इस शरीर के नव दरवाजों द्वारा सींचित कर रहा है। यह तेरा कर्तव्य नहीं है, इससे तुम्हारा शरीर मोटा हो जायेगा और शरीरस्थ मन बुद्धि चित अहंकार रूपी अन्तःकरण भी जिसमें चेतन्य जीव का निवास है वह स्थूलता को धारण कर लेगा तो फिर सूक्ष्म विषय योग को कैसे धारण करेगा तथा यह बाड़ी रूपी शरीर भी चाहे स्थूल हो जाये तो भी एक दिन तो इस वनमाली जीव से बिछुड़ ही जायेगा तो फिर इस वन तथा वनमाली को सींचित करने से क्या लाभ है?
सुवचन बोल सदा सुहलाली, नाम विष्णु को हरे सुणे।
घण तण गड़बड़ कायों वायो, निज मारग तो बिरला कायो।
योग समाधि की बात तो बहुत उच्चकोटि की है, वहां तक तो तुम्हारी पहंुच ही नहीं है। इससे पूर्व कई और भी बाते हैं जो ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो तुम्हारी वाणी ही शुद्ध नहीं है। गाली देना, कटु तथा अशुद्ध शब्द बोलना त्यागना होगा। यह तुम्हारे अनेक प्रकार की विघ्न बाधायें उत्पन्न कर देता है। इसीलिए सुवचन, प्रिय, सत्य, हितकर वाणी ही बोलनी चाहिये जिससे सदा खुशहाली बनी रहे। दूसरा तुम्हारा कर्तव्य कर्म यही होना चाहिये कि यदि कुछ सुनना है तो विष्णु नाम का कीर्तन ही श्रवण करना या परमात्मा विषयक सत्संग चर्चा का ही श्रवण करना योग्य है तथा यदि जिह्वा के द्वारा कुछ बोलना ही पड़े तो विष्णु का नाम उच्चारण ही करना या फिर भगवद् भजन सत्संग विषयक वार्तालाप ही करना श्रेयस्कर है।
इससे ज्यादा यदि बोलने तथा सुनने की चेष्टा करता है तो वह जरूरत से ज्यादा होने से अधिक है तथा गड़बड़, झूठ, निंदा, कपट भरी बातें ही कही और सुनी जायेगी। इस प्रकार के चक्कर में पड़ जाने से तो तुम्हारा योग सिद्ध नहीं हो सकेगा। इस संसार के लोगों के साथ तुमने सम्बन्ध स्थापित किया है। यहां पर तो अपने सच्चे मार्ग पर चलने वाला तो कोई बिरला ही होगा। बाकी तो सभी चैरासी के चक्कर में ही भटकने वाले हैं।
निज पोह पाखो पर असी पर, जाण म गाहि म गायो गूंणो।
श्रीराम में मति थोड़ी, जोय जोय कण बिण कूकस कांयो लेणो।
हे योगी! स्वकीय सच्चे मार्ग बिना तो पार नहीं पंहुच सकते। यदि गन्तव्य स्थान में जाने की कोशिश भी करेगा तो भी विफल हो जायेगा क्योंकि बिना मार्ग उजड़ तो कहीं भी पंहुचा नहीं जा सकता। बिना मार्ग तो केवल दिन रात परिश्रम करना तो जान करके भी यह मोठ, चने, धान रहित केवल गुणा (भूसा) ही है, फिर भी उसको खले में डालकर फिर से गाहटा करने जैसा ही है। वहां मोठ चने रूप फल की प्राप्ति कहां है। इसी प्रकार से यदि जानते हुए भी कि बिना मार्ग गांव नहीं पंहुचा जा सकता, फिर चल देना यह मूर्खता ही होगी।
यदि तुम्हारी श्रीराम परमात्मा में, उनके मर्यादायुक्त कर्तव्यों में, वचनों में तो बुद्धि कम लगती है तथा इधर उधर की आल बाल बातों में ज्यादा लगती है तो तुम्हारा प्रयास विफल ही होगा। जिस प्रकार से कण धान रहित कूकस भूसा में अन्न निकालने का बार बार भी प्रयत्न किया जाये तो भी वहां क्या मिलता है।
ओ३म्- नवै पोल नवै दरवाजा, अहूंठ कोड़रूं राय जड़ी।
कांय रे सींचो बनमाली, इंहि बाड़ी तो भेल पड़सी।
भावार्थः- इस पंचभौतिक शरीर में बाह्य दिखने वाली दो आंखे, दो कान, दो नासिकायें तथा एक मुख, ये सात तो ऊपर के दरवाजे हैं तथा दो नीचे के पायु तथा उपस्थ कुल मिलाकर नौ बड़े दरवाजे हैं तथा इन्हीं दरवाजों के अन्दर प्रवेश करने पर नौ ही उनकी पोल यानी थोथापन है अर्थात् इन इन्द्रियों के अन्दर इनका आकाश है। जिस द्वार से बाह्य भोग वस्तु अन्दर स्थित जीव तक पंहुचती है तथा उन वस्तुओं का सार रूप शरीर के अर्थ में आ जाने पर अवशिष्ट मल रूप से बाहर भी निकलता है तथा उन नौ बड़े दरवाजों के अतिरिक्त साढ़े तीन करोड़ रोमावली भी शरीर में जड़ी हुई हे। ये भी छोटे-मोटे झरोखों के समान हवा, जल आदि ग्रहण एवं त्याग का कार्य करती है।
इतने छिद्रों से युक्त यह शरीर एक घने जंगल की तरह ही है जिसमें झाड़ी घास फूस असंख्य उग आते हैं। उसी प्रकार इस शरीर में भी रोमावली उगी हुई है तथा यह शरीरस्थ जीवात्मा ही इस वन का माली है जो इस शरीर द्वारा इन भोगों को भोगता है। यह जीव प्रसन्न होता है तो इस शरीर को भी भोग्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिससे यह भी हष्ट पुष्ट होता है। संसार के लोग तो यही करते रहते हैं। किन्तु गुरु जम्भेश्वरजी कहते हैं कि हे योगी! तू दिन रात इसी बनमाली जीव को इस शरीर के नव दरवाजों द्वारा सींचित कर रहा है। यह तेरा कर्तव्य नहीं है, इससे तुम्हारा शरीर मोटा हो जायेगा और शरीरस्थ मन बुद्धि चित अहंकार रूपी अन्तःकरण भी जिसमें चेतन्य जीव का निवास है वह स्थूलता को धारण कर लेगा तो फिर सूक्ष्म विषय योग को कैसे धारण करेगा तथा यह बाड़ी रूपी शरीर भी चाहे स्थूल हो जाये तो भी एक दिन तो इस वनमाली जीव से बिछुड़ ही जायेगा तो फिर इस वन तथा वनमाली को सींचित करने से क्या लाभ है?
सुवचन बोल सदा सुहलाली, नाम विष्णु को हरे सुणे।
घण तण गड़बड़ कायों वायो, निज मारग तो बिरला कायो।
योग समाधि की बात तो बहुत उच्चकोटि की है, वहां तक तो तुम्हारी पहंुच ही नहीं है। इससे पूर्व कई और भी बाते हैं जो ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो तुम्हारी वाणी ही शुद्ध नहीं है। गाली देना, कटु तथा अशुद्ध शब्द बोलना त्यागना होगा। यह तुम्हारे अनेक प्रकार की विघ्न बाधायें उत्पन्न कर देता है। इसीलिए सुवचन, प्रिय, सत्य, हितकर वाणी ही बोलनी चाहिये जिससे सदा खुशहाली बनी रहे। दूसरा तुम्हारा कर्तव्य कर्म यही होना चाहिये कि यदि कुछ सुनना है तो विष्णु नाम का कीर्तन ही श्रवण करना या परमात्मा विषयक सत्संग चर्चा का ही श्रवण करना योग्य है तथा यदि जिह्वा के द्वारा कुछ बोलना ही पड़े तो विष्णु का नाम उच्चारण ही करना या फिर भगवद् भजन सत्संग विषयक वार्तालाप ही करना श्रेयस्कर है।
इससे ज्यादा यदि बोलने तथा सुनने की चेष्टा करता है तो वह जरूरत से ज्यादा होने से अधिक है तथा गड़बड़, झूठ, निंदा, कपट भरी बातें ही कही और सुनी जायेगी। इस प्रकार के चक्कर में पड़ जाने से तो तुम्हारा योग सिद्ध नहीं हो सकेगा। इस संसार के लोगों के साथ तुमने सम्बन्ध स्थापित किया है। यहां पर तो अपने सच्चे मार्ग पर चलने वाला तो कोई बिरला ही होगा। बाकी तो सभी चैरासी के चक्कर में ही भटकने वाले हैं।
निज पोह पाखो पर असी पर, जाण म गाहि म गायो गूंणो।
श्रीराम में मति थोड़ी, जोय जोय कण बिण कूकस कांयो लेणो।
हे योगी! स्वकीय सच्चे मार्ग बिना तो पार नहीं पंहुच सकते। यदि गन्तव्य स्थान में जाने की कोशिश भी करेगा तो भी विफल हो जायेगा क्योंकि बिना मार्ग उजड़ तो कहीं भी पंहुचा नहीं जा सकता। बिना मार्ग तो केवल दिन रात परिश्रम करना तो जान करके भी यह मोठ, चने, धान रहित केवल गुणा (भूसा) ही है, फिर भी उसको खले में डालकर फिर से गाहटा करने जैसा ही है। वहां मोठ चने रूप फल की प्राप्ति कहां है। इसी प्रकार से यदि जानते हुए भी कि बिना मार्ग गांव नहीं पंहुचा जा सकता, फिर चल देना यह मूर्खता ही होगी।
यदि तुम्हारी श्रीराम परमात्मा में, उनके मर्यादायुक्त कर्तव्यों में, वचनों में तो बुद्धि कम लगती है तथा इधर उधर की आल बाल बातों में ज्यादा लगती है तो तुम्हारा प्रयास विफल ही होगा। जिस प्रकार से कण धान रहित कूकस भूसा में अन्न निकालने का बार बार भी प्रयत्न किया जाये तो भी वहां क्या मिलता है।
शब्द-77
ओ३म्- भूला लो भल भूला लो, भूला भूल न भूलूं।
जिंहि ठूंठड़िये पान न होता ते क्यूं चाहत फूलूं।
भावार्थः- मन, बुद्धि, चित और अहंकार ये चारों ही अन्तःकरण है तथा यह अन्तःकरण एक होने पर भी कार्य भेद से चार नामों से विख्यात हो गया। चारों का भिन्न भिन्न कार्य होता है। इनमें चित का कार्य स्मरण शक्ति है। जिसका चित पक्ष कमजोर होता है उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है। ‘‘स्मृति भ्रशांत बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’’ (गीता)। स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से महानाश को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि हे प्राणी सचेत रहो। भूल में अचेतावस्था में रहकर उस परमपिता परमात्मा को मत भूलो तथा अपने स्वरूप को न भूलते हुए स्वरूप में स्थिति का प्रयत्न करो। यह मैं देखता हूं कि आप लोग अत्यधिक भूल गहरी निन्द्रा में अचेत हो चुके हो। आप लोगों को बार-बार तुम्हारी भूल का स्मरण दिलाने पर भी अपनी भूल को स्वीकार करके उससे सचेत होने की कोशिश ही नहीं करते।
जिस सूखे ठूंठ पर पते ही नहीं है उस पर फूल फल की आशा क्यों करते हैं अर्थात् यह संसार तथा सांसारिक भूत-प्रेत देवी देवता ये सभी सूखे ठूंठ की तरह ही है। ये स्वयं दुःख के मारे दुःखित है, इनके पास हरियाली सुख नाम की कोई वस्तु नहीं है। फिर भी आप लोग इनके पीछे पड़े हैं, इनमें फल-फूल चाहते हैं, सुख चाहते हैं। यही तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है, नादानी है।
को को कपूर घूंटीलो, बिन घूंटी नहीं जाणी।
कुछ-कुछ लोग तो कपूर की घूंटी लेकर देखते हैं, उन्हें तो मालूम पड़ जाता है किन्तु कुछ लोग घूंटी नहीं ले पाते तो वे लोग ठीक से समझ नहीं पाते अर्थात् कपूर ऊपर से देखने में शुभ्र वर्ण का दिव्य खाद्य मीठा पदार्थ जैसा दिखता है। उसे देखकर कुछ लोग उसकी घूंटी ले लते हैं, मुख में डाल लेते हैं किन्तु उसका रसहीन कड़वा स्वाद असह्य होने से थूक देते हैं, जो ऐसा करके देखते हैं वे तो असलियत जान जाते हैं किन्तु जो लोग ऐसा अनुभव नहीं करते वे नहीं जान पाते। उसी प्रकार ही ये प्रचलित भूत-प्रेतादिक कपूर की तरह ही बाहर से यानी दूर से तो सौम्य ही दिखाई देते हैं पर जब उनसे व्यवहार करते है। तब वे कटुता, रसहीन, दुःखों से भरे हुए ही नजर आते हैं। जो एक बार ऐसा अनुभव करके देखता है वह तो फिर कभी भूल से भी नजदीक नहीं जाता किन्तु जो अनुभवहीन है वे लोग आशा रखते हैं। बार-बार उनसे सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करते हैं।
सतगुरु होयबा सहजे चीन्हबा, जा चंध आल बखाणी।
जिस व्यक्ति ने सतगुरु धारण किया है वह तो सहज रूप में ही परमात्मा का स्मरण करेगा। कभी भी कल्पित देवी देवताओं की आशा नहीं करेगा तथा जो जाचक अर्थात् कुतर्की, झूठा बाद बिवादी, जानते हुए भी न मानने वाला होगा वह अन्धा है और व्यर्थ का झूठ, आल-बाल बाते बोलेगा। लोगों को भ्रमित कर देगा। उससे सदा सावधान रहें, यह कभी भी मार्ग से दूर हटा सकता है।
ओछी किरिया आवै फिरिया, भ्रांती सुरग न जाई।
अन्त निरंजन लेखो लेसी, पर चीन्हैं नहीं लोकाई।
अधूरी धार्मिक क्रिया से तो वापिस जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा। कोई भी कार्य करो तो पूर्णता से करो ताकि उसमें कमी न रह जाये, कुछ किया कुछ छोड़ दिया या बिना इच्छा के किया गया वह अधूरा है और अधूरा कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता, पूर्णता को प्राप्त नहीं करवा सकता तथा जब तक विवेक शून्यता है मानव भ्रांति के अन्दर भ्रमित हो रहा है, धर्म अधर्म का निर्णय नहीं कर सका है वह स्वर्ग में नहीं जा सकता।
मृत्यु के बाद में जब यह जीव इह लोक, शरीर, परिवार को छोड़कर परलोक में जायेगा तब निरंजन माया रहित परमेश्वर उससे हिसाब पूछेगा । तब जीव कहेगा कि मैनें जप दान पुण्य तो किया है तब उससे वह निरंजन यही कहेगा कि तुमने किया तो अवश्य है पर लौकिक भूत प्रेतों का ही। अब यहां पर उनका अधिकार नहीं चलता। जिसको तुमने महत्व दिया वह तो वहीं पीछे ही रह गये।
कण बिन कूकस रस बिन बाकस,बिन किरिया परिवारूं।
हरि बिन देह रै जांण न पावे, अम्बाराय दवारूं।
जिस परिवार गृहस्थी के घर में शुद्ध क्रिया नियम धर्म नहीं है वह परिवार तो जिस प्रकार से धान अन्न के बिना थोथा भूसा तथा रसहीन वाकस की तरह ही होता है। उस परिवार तथा भूसा का कोई महत्व नहीं है। परिवार में से तो शुद्ध क्रिया चली गयी और भूसा में से अन्न चला गया तथा गन्ने के सूखे डंठलों में से रस चला गया। ये तीनों एक ही तरह के हो जाते हैं।
हे प्राणी! भगवान विष्णु की शरण ग्रहण किये बिना ये देहधारी जीवात्मा पार नहीं पंहुच सकती। उस दिव्य सुखमय स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकती। ये सांसारिक भूत-प्रेत, देवी-देवता तुम्हें कभी भी पार नहीं उतार सकते।
ओ३म्- भूला लो भल भूला लो, भूला भूल न भूलूं।
जिंहि ठूंठड़िये पान न होता ते क्यूं चाहत फूलूं।
भावार्थः- मन, बुद्धि, चित और अहंकार ये चारों ही अन्तःकरण है तथा यह अन्तःकरण एक होने पर भी कार्य भेद से चार नामों से विख्यात हो गया। चारों का भिन्न भिन्न कार्य होता है। इनमें चित का कार्य स्मरण शक्ति है। जिसका चित पक्ष कमजोर होता है उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है। ‘‘स्मृति भ्रशांत बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’’ (गीता)। स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से महानाश को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए गुरु जम्भदेवजी कहते हैं कि हे प्राणी सचेत रहो। भूल में अचेतावस्था में रहकर उस परमपिता परमात्मा को मत भूलो तथा अपने स्वरूप को न भूलते हुए स्वरूप में स्थिति का प्रयत्न करो। यह मैं देखता हूं कि आप लोग अत्यधिक भूल गहरी निन्द्रा में अचेत हो चुके हो। आप लोगों को बार-बार तुम्हारी भूल का स्मरण दिलाने पर भी अपनी भूल को स्वीकार करके उससे सचेत होने की कोशिश ही नहीं करते।
जिस सूखे ठूंठ पर पते ही नहीं है उस पर फूल फल की आशा क्यों करते हैं अर्थात् यह संसार तथा सांसारिक भूत-प्रेत देवी देवता ये सभी सूखे ठूंठ की तरह ही है। ये स्वयं दुःख के मारे दुःखित है, इनके पास हरियाली सुख नाम की कोई वस्तु नहीं है। फिर भी आप लोग इनके पीछे पड़े हैं, इनमें फल-फूल चाहते हैं, सुख चाहते हैं। यही तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है, नादानी है।
को को कपूर घूंटीलो, बिन घूंटी नहीं जाणी।
कुछ-कुछ लोग तो कपूर की घूंटी लेकर देखते हैं, उन्हें तो मालूम पड़ जाता है किन्तु कुछ लोग घूंटी नहीं ले पाते तो वे लोग ठीक से समझ नहीं पाते अर्थात् कपूर ऊपर से देखने में शुभ्र वर्ण का दिव्य खाद्य मीठा पदार्थ जैसा दिखता है। उसे देखकर कुछ लोग उसकी घूंटी ले लते हैं, मुख में डाल लेते हैं किन्तु उसका रसहीन कड़वा स्वाद असह्य होने से थूक देते हैं, जो ऐसा करके देखते हैं वे तो असलियत जान जाते हैं किन्तु जो लोग ऐसा अनुभव नहीं करते वे नहीं जान पाते। उसी प्रकार ही ये प्रचलित भूत-प्रेतादिक कपूर की तरह ही बाहर से यानी दूर से तो सौम्य ही दिखाई देते हैं पर जब उनसे व्यवहार करते है। तब वे कटुता, रसहीन, दुःखों से भरे हुए ही नजर आते हैं। जो एक बार ऐसा अनुभव करके देखता है वह तो फिर कभी भूल से भी नजदीक नहीं जाता किन्तु जो अनुभवहीन है वे लोग आशा रखते हैं। बार-बार उनसे सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करते हैं।
सतगुरु होयबा सहजे चीन्हबा, जा चंध आल बखाणी।
जिस व्यक्ति ने सतगुरु धारण किया है वह तो सहज रूप में ही परमात्मा का स्मरण करेगा। कभी भी कल्पित देवी देवताओं की आशा नहीं करेगा तथा जो जाचक अर्थात् कुतर्की, झूठा बाद बिवादी, जानते हुए भी न मानने वाला होगा वह अन्धा है और व्यर्थ का झूठ, आल-बाल बाते बोलेगा। लोगों को भ्रमित कर देगा। उससे सदा सावधान रहें, यह कभी भी मार्ग से दूर हटा सकता है।
ओछी किरिया आवै फिरिया, भ्रांती सुरग न जाई।
अन्त निरंजन लेखो लेसी, पर चीन्हैं नहीं लोकाई।
अधूरी धार्मिक क्रिया से तो वापिस जन्म-मरण के चक्कर में आना पड़ेगा। कोई भी कार्य करो तो पूर्णता से करो ताकि उसमें कमी न रह जाये, कुछ किया कुछ छोड़ दिया या बिना इच्छा के किया गया वह अधूरा है और अधूरा कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता, पूर्णता को प्राप्त नहीं करवा सकता तथा जब तक विवेक शून्यता है मानव भ्रांति के अन्दर भ्रमित हो रहा है, धर्म अधर्म का निर्णय नहीं कर सका है वह स्वर्ग में नहीं जा सकता।
मृत्यु के बाद में जब यह जीव इह लोक, शरीर, परिवार को छोड़कर परलोक में जायेगा तब निरंजन माया रहित परमेश्वर उससे हिसाब पूछेगा । तब जीव कहेगा कि मैनें जप दान पुण्य तो किया है तब उससे वह निरंजन यही कहेगा कि तुमने किया तो अवश्य है पर लौकिक भूत प्रेतों का ही। अब यहां पर उनका अधिकार नहीं चलता। जिसको तुमने महत्व दिया वह तो वहीं पीछे ही रह गये।
कण बिन कूकस रस बिन बाकस,बिन किरिया परिवारूं।
हरि बिन देह रै जांण न पावे, अम्बाराय दवारूं।
जिस परिवार गृहस्थी के घर में शुद्ध क्रिया नियम धर्म नहीं है वह परिवार तो जिस प्रकार से धान अन्न के बिना थोथा भूसा तथा रसहीन वाकस की तरह ही होता है। उस परिवार तथा भूसा का कोई महत्व नहीं है। परिवार में से तो शुद्ध क्रिया चली गयी और भूसा में से अन्न चला गया तथा गन्ने के सूखे डंठलों में से रस चला गया। ये तीनों एक ही तरह के हो जाते हैं।
हे प्राणी! भगवान विष्णु की शरण ग्रहण किये बिना ये देहधारी जीवात्मा पार नहीं पंहुच सकती। उस दिव्य सुखमय स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकती। ये सांसारिक भूत-प्रेत, देवी-देवता तुम्हें कभी भी पार नहीं उतार सकते।
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